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कि इस प्रकार की आत्म-वंचना से दूसरों का कुछ बिगाड़ हो या न हो, तेरा तो सर्वनाश हो ही रहा है।
तत्वज्ञ में यह भ्रान्तिकारक वक्रता सम्भव नहीं। वह भीतर तथा बाहर से समान होता है। इसी से वह केवल दृष्टि-सम्पन्न नहीं आचरण-सम्पन्न भी होता है । इस प्रकार की दृष्टि जागृत हो जाने पर विषम व्यवहार सम्भव नहीं है । लेने-देने में, बोलने-चालने में, पढ़नेपढ़ाने में, करने-कराने में उसका समस्त व्यवहार स्वतः समता के रंग में रंग जाता है। यही है दृष्टि, विवेक तथा आचरण का पारमार्थिक त्रित्व, जिसके जागृत हो जाने पर भीतर तथा बाहर सर्वत्र जो कुछ भी दिखाई दे रहा है उसमें कुछ भी वैचित्र्य रह नहीं जाता है।
जगन्मंच पर होने वाली यह अखण्ड नाट्यलीला अनादिकाल से ऐसे ही चलती रही है और ऐसे ही चलती रहेगी। न इसे कोई चलाने वाला है औन न बिगाड़ने वाला । अहंकार की दृष्टि के द्वारा अहंकारकृत छोटे-छोटे विधान ही बनते-बनाते अथवा बिगड़ते-बिगड़ाते दिखाई देते हैं परन्तु जिसकी दृष्टि इस क्षुद्र अहंकार का अतिक्रम करके सकल विश्व में व्याप गई है, जो व्यष्टि को न देखकर समष्टि को देखती है, एक-एक को न देखकर समग्र को युगपत् देखती है, इस अखिल विश्व को तथा इसकी व्यवस्था को एक तथा अखण्ड इकाई के रूप में देखती है, उसके लिये कर्तृत्व को कहां अवकाश है। विश्वव्यापी इस इकाई में अहंकारकृत क्षुद्र व्यष्टियें न जाने कहां विलीन होकर रह गई हैं । न यहां देशकृत व्यवधान है और न कालकृत । देशकालानवच्छिन्न यह समग्र तथा इसका सकल विधान केवल प्राकृतिक तथा स्वाभाविक है जिसमें हेर-फेर करने के लिये कोई समर्थ नहीं । सर्वज्ञ भी जब इसे केवल देख ही सकते हैं, इसमें कुछ कर नहीं सकते, तब अस्मद्-युष्मद् की तो बात ही क्या ?
वास्तव में हेर-फेर करने की बुद्धि अहंकार की उपज है । क्षुद्र होते हुए भी वह अपने को बड़ा समझता है और समस्त विश्व को अपने अनुकूल परिणमन करा देने की कल्पनायें किया करता है । अपने को बदलने के बजाय दूसरे को बदल देना यही उसका सकल पुरुषार्थ है और यह पुरुषार्थ ही सकल प्रपंच का आधार है। जब तक अहंकार का लेश भी जीवित है व्यक्ति इस विश्वव्यापी सहज तात्विक विधान को कैसे देख तथा समझ सकता है। यही कारण हैं कि तात्विक विधान को शास्त्रों में पढ़कर तथा समझकर भी वह अपने उस ज्ञान का प्रयोग दूसरों की दृष्टि को बदल देने के प्रति ही करता है, अपनी दृष्टि को बदल देने के लिये नहीं ।
यदि एक क्षण के लिये भी कदाचित् वह देख पाये कि वस्तु स्वभाव के आधीन होने के कारण विश्व का जटिल विधान सहज तथा स्वाभाविक है और इसलिए अकृत्रिम, तो इसमें हस्तक्षेप करने की अथवा बदल देने की इसकी कल्पना को कहीं अवकाश न रह जाये । यदि एक क्षण के लिये भी कदाचित् वह देख ले कि इस सकल विधान का शासक तथा सम्राट् कर्म है जो मानवीय विधान की भांति किसी की सिफारिश की प्रतीक्षा नहीं करता, तो इसमें हस्तक्षेप करने की अथवा बदल देने की उसकी कल्पना को कहीं अवकाश न रह जाये । यदि एक क्षण के लिए भी कदाचित् वह देख ले कि उत्थान-पतन, वृद्धि-ह्रास, जन्म-मरण, सृष्टि-प्रलय, सुख-दुःख, धर्म-अधर्म आदि द्वन्द्वों का यह चक्र अनादि काल से यों ही चला आ रहा है और अनन्त काल तक यों ही चलता रहेगा। काल की नित्य तथा निर्बाध इस महागति को किंचित्मात्र भी बाधित करना तो दूर इसे बाधित करने का विचार करने वाला भी इसके जबड़े का चबीना बनकर रह जाता है, तो इसमें हस्तक्षेप करने की अथवा बदल देने की उसकी कल्पना को कहीं अवकाश न रह जाये। यदि एक क्षण को भी कदाचित् वह यह विश्वास कर ले कि विश्व की यह अखण्ड तथा निधि व्यवस्था वैसी ही नियत तथा टंकोत्कीर्ण है जैसी कि सर्वज्ञदेव ने देखी है तो इसमें हस्तक्षेप करने की अथवा बदल देने की उसकी कल्पना को कहीं अवकाश न रह जाये।
तत्वज्ञ ही ठीक जानता है कि विश्व की व्यवस्था में स्वभाववाद की अथवा कर्मवाद की अथवा कालवाद की अथवा नियतिवाद की चर्चा करने वाले स्वयं जगत् के इस विधान के अन्तर्गत हैं, अन्यथा दूसरों को बदल देने की उनकी यह प्रवृत्ति अवश्य विराम पर जाती। सर्वत्र तात्विक विधान के दर्शन करने वाले में कर्तृत्व बुद्धि का सत्व सम्भव नहीं और कर्तृत्व बुद्धि के सद्भाव में तात्विक विधान के दर्शन सम्भव नहीं। शास्त्र इस बात की स्पष्ट घोषणा कर रहा है कि जो कर्ता है वह ज्ञाता नहीं और जो ज्ञाता है वह कर्ता नहीं.-"कोई एक अकेला व्यक्ति सारे विश्व को बदल सके यह निःसन्देह असम्भव है परन्तु अपनी सामर्थ्य के अनुसार वह अपने सीमित क्षेत्र में तो परिवर्तन कर ही सकता है अन्यथा पुरुषार्थ निष्फल हो जायेगा' ऐसी चर्चा करने वाले पुरुषार्थवादी नहीं जानते कि उनकी यह आवाज वास्तव में सत्पुरुषार्थ की है या कि उसकी आड़ लेकर अहंकार की गर्जना है, अन्य कुछ नहीं। जब तक यह अहंकार जीवित है तब तक उसके समस्त विश्वास, विवेक तथा आचरण समीचीनता को स्पर्श करने के लिये समर्थ नहीं हैं।
इस तथ्य को यदि वह अपने जीवन में प्रत्यक्ष कर ले तो उसकी कर्तृत्व बुद्धि विश्रान्त हो जाय, अहंकार विलय हो जाये, ज्ञातादृष्टा-बुद्धि जागृत हो जाये । उस अवस्था में वह जगत् की भांति तमाशा न बनकर इसका तमाशाई बन जाये, दृश्य न रहकर दृष्टा बन जाय, ज्ञय न रहकर ज्ञाता बन जाये, रागी न रहकर वीतराग बन जाये और वही होगा उसका समीचीन पुरुषार्थ जिसमें श्रद्धा, विवेक तथा आचरण का त्रित्व एक-रस होकर अपने त्रित्व को भी खो देता है। उस अवस्था में वह स्वयं कुछ न करके तटस्थ तथा साक्षी की भांति जगत् प्रसिद्ध पुरुषार्थ की नाट्य-लीला को देखा करे और इसे धन्यवाद दिया करे क्योंकि यदि यह न हो तो जगत् ही न हो।
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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