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________________ (५) हास्य मुक्तिवचन संयम रूप भावना स्वास्थ्य के लिए मानव को सदा प्रफुल्लित रहना चाहिए। खिले हुए फूल की तरह उसका चेहरा होना चाहिए । उत्तम मानवों की आंखें हंसती हैं। जब भी हंसने का प्रसंग आता है, उनकी आंखों से ऐसी रोशनी चमकती है कि मानव का मन आनन्द से विभोर हो जाता है। मध्यम मानव खिलखिलाकर हंसता है और अधम मानव अट्टहास करता है। उसके ठहाके से दीवारें गूंजने लगती हैं। इस प्रकार की हंसी असभ्यता व जंगलीपन का प्रतीक है। समझदार व्यक्ति बहुत कम हंसता है। वह हंसी-मजाक का परित्याग कर इन्द्रियों को संयत करता है।' राजस्थानी कहावत भी है – “रोग की जड़ खांसी, लड़ाई की जड़ हांसी ।" हास्य सत्य का शत्रु है। एक कवि ने कहा-ए मानव ! हंस मत ! हंसना उच्चता का प्रतीक नहीं है। हंसने से अनेक दोष आ जाते हैं और गुण चले जाते हैं। तथा लोग पागल समझते हैं ।" हंसी-मजाक करने वाला गम्भीर नहीं हो सकता। वह विवेकयुक्त शब्दों का चयन नहीं कर पाता, सत्य-असत्य का विवेक नहीं रख पाता। लोगों को हंसाने के लिए वह जोकर, विदूषक या भांड की तरह चेष्टा करता है, जिससे लोग हंसें । वह दूसरों का उपहास भी करता है, जिससे दूसरों के हृदय को आघात लगता है । एतदर्थ ही शास्त्रकारों ने साधक को हंसी-मजाक न करने के लिए प्रेरणा दी है । यहां यह स्मरण रखना होगा कि हंसी-मजाक और विनोद में अन्तर है। विनोद में सौम्यता होती है, यथार्थता होती है। विनोद में इस प्रकार से शब्दों का प्रयोग होता है, जिससे किसी के दिल को पीड़ा नहीं होती, किन्तु हंसी-मजाक में दूसरों के मन में पीड़ा होती है। "एक व्यंग्य-वचन हजार गालियों से भी भयानक होता है" तथा "एक मसखरी सौ गाली" आदि लोकोक्तियां व्यंग्य - हास्य की भयंकरता का दिग्दर्शन कराती हैं । अतः साधक हंसी-मजाक का परित्याग करता है और संयम के द्वारा ऐसे संस्कार जागृत करता है जिससे उसकी वाणी पूर्ण संयत, निर्दोष और यथार्थ होती है। हित, मित, प्रिय, तथ्य व सत्य से संपृक्त होती है। उपर्युक्त पंक्तियों में सत्य के सम्बन्ध में संक्षेप में कुछ चिन्तन किया है। यों सत्य का स्वरूप बहुत ही विराट् है । शब्दों के संकीर्ण घेरे में उसे बांधना सम्भव नहीं, किन्तु संक्षेप में समझा तो जा ही सकता है । प्रामाणिक हितकारक सम्रचन बोलना सत्य है। असत्य भाषण के त्याग करने से सत्य वचन प्रकट होता है । मनुष्य लोभ, भय, मनोरंजन, अज्ञानता आदि अनेक कारणों से असत्य बोलता है। क्रोध, अभिमान, व्यंग्य रूप से अन्य व्यक्ति को दुःखकारक, निन्दाजनक, पापवचन बोलना भी असत्य में सम्मिलित है, अतः सत्यवादी मनुष्य को ऐसे वचन मुख से उच्चारण नहीं करने चाहियें। कोहभयलोहहासपइण्णा अणुवीचिभाषणं चेव । विदियल्स भावणावो वदस्स पंचेव ता होंति ॥ Jain Education International -मूलाचार, ३३८ सदैव अपने मुख से प्रामाणिक, सत्य, स्व-परहितकारी, मृदु वचन बोलने चाहिएं, अपने सेवकों से, भिखारी, दीन, दरिद्र व्यक्तियों से सांत्वना तथा शान्तिकारक मृदु वचन बोलने चाहिएं। पीड़ाकारक कठोर बात न कहनी चाहिए क्योंकि उनका हृदय पहले ही दुःखी होता है कठोर वचनों से और अधिक दुखेगा। यह जिह्वा यदि अच्छे वचन बोलती है तो वह अमूल्य है। यदि यह असत्य, भ्रामक, भयोत्पादक, पीड़ादायक, कलहकारी, क्षोभकारक निन्दनीय वचन कहती है तो यह जीभ चमड़े का अशुद्ध टुकड़ा है। सत्यं प्रियं हितं चाहुः सूनृत तत्सत्यमपि नो सत्यमप्रियं चाहितं च यत् ॥ यत् ।। - अनगार-धर्मामृत, ४२ ( आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज कृत उपदेशसारसंग्रह भाग-१, जयपुर वि० सं० २०३६ से उद्धृत १. 'सव्वं हासं परिच्चज्ज अल्लीण गुत्तो परिव्वए ।', आचारांग, ३१२ २. 'हंसिए नहीं गिवार, हंसिया हलकाई हुवं । हंसिया दोष अपार, गुण जावे गहलो कहे ॥' जैन दर्शन मीमांसा For Private & Personal Use Only ४७ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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