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________________ मानव का श्रेष्ठ गुण : सत्य ___ऋग्वेद में कहा गया है जो व्यक्ति दुष्कर्मी हैं, वे सत्य के पवित्र पथ को पार नहीं कर सकते।' इसीलिए यजुर्वेद में ऋषि ईश्वर से प्रार्थना करता है-मैं असत्य से बचकर सत्य का अनुगामी बनूं ।' सत्य ही बोलो, असत्य कभी मत बोलो।' अथर्ववेद के अनुसार असत्यवादी वरुण के पाश में पकड़ा जाता है। उसका उदर फूल जाता है। आचार्य मनु का मन्तव्य है कि इस लोक में भी असत्य बोलने वालों को घोर पापी माना जाता है। तस्कर केवल दूसरों के धन का अपहरण करता है, पर मृषावादी अपनी आत्मा के सद्गुणों का भी अपहरण करता है। सज्जनों के बीच किसी बात को न बतलाना भी असत्य है। शब्द और अर्थ को तोड़-मरोड़कर उल्टे-सीधे रूप में प्रस्तुत करना, असत्य के साथ ही स्तेय-कृत्य की तरह है । शतपथ ब्राह्मण में सत्य को मानव का सर्वश्रेष्ठ गुण कहा है। इसके अभिमतानुसार असत्यभाषी अपवित्र है । वह किसी भी यज्ञ आदि पवित्र कार्य को करने का अधिकारी नहीं है। सत्य के द्वारा ही मानव में तेजस्विता आती है। उसका नित्य अभ्युदय होता है तथा वह सिद्धि को वरण करता है । जो व्यक्ति सत्य बोलता है, उसका तेज प्रतिपल-प्रतिक्षण बढ़ता है और असत्य बोलने वाले का तेज क्षीण होता चला जाता है। अतः सदा सत्य भाषण करना चाहिए। सृष्टि सत्य पर प्रतिष्ठित है ऋग्वेद के ऋषि ने सत्य को सर्वोच्च स्थान दिया है। उनका अभिमत है कि सृष्टि की उत्पत्ति के क्रम में सर्वप्रथम ऋत और सत्य उत्पन्न हुए। सत्य से ही आकाश, पृथ्वी, वायु स्थिर हैं । सत्य के समक्ष असत्य की किंचित् भी प्रतिष्ठा नहीं है। एक अन्य वैदिक आचार्य ने भी कहा है-पृथ्वी सत्य पर आधृत है । सत्य के कारण ही आकाश-मण्डल में चमचमाता हुआ सूर्य सारे विश्व को प्रकाश और ताप देता है। सत्य के कारण ही शीतल-मन्द-सुगन्ध पवन प्रवाहित है । और तो क्या? विश्व की जितनी भी वस्तुएं हैं, वे सत्य पर प्रतिष्ठित हैं । शिवपुराण में कहा है—तराजू के एक पलड़े में हजारों अश्वमेघ यज्ञ के पुण्य को रखा जाये और दूसरे पलड़े में सत्य को रखा जाये तो हजारों अश्वमेघ यज्ञ के पुण्य से बढ़कर सत्य का पुण्य है। इसीलिए वाल्मीकि ऋषि ने राम के पवित्र चरित्र का उटेंकन करते हुए लिखा है कि राम ने अपने प्राणों के लिए भी कभी मिथ्याभाषण नहीं किया।२ राम ने स्पष्ट शब्दों में कहा-न मैं पहले कभी झूठ बोला हूं और न कभी आगे झूठ बोलूंगा।" सन्त तुलसीदास ने भी सभी सुकृत्यों का मूल सत्य को बताया है।" अथर्ववेद के मंत्र विभाग में महर्षि शौनक की जिज्ञासा का समाधान करते हुए आचार्य अंगिरा ने सत्य की गौरव-गरिमा गाते हुए कहा--सत्य की विजय होती है, असत्य की नहीं । सत्य से देवयान मार्ग का विस्तार होता है, जिससे आप्तकाम ऋषिगण प्रस्तुत पद को प्राप्त होते हैं। जहां पर सत्य का परम विधान है।५ शतपथ ब्राह्मण में लिखा है—सत्यवादी को प्रारम्भ में भले ही विजय प्राप्त न हो, पर अन्त में विजय सत्यवादी की ही होती है। जैसे--देवताओं और असुरों १. 'ऋतस्य पन्था न तरति दुष्कृत:', ऋग्वेद, ६/७३/६ २. 'इदमहमनृतात् सत्यमुपैमि', यजुर्वेद, १/५ ३. (क) 'सत्यं वद', उपनिषद् (ख) 'सत्यमेव वद नानृतम्', बोधायन धर्मसूत्र, ६/६ ४. अथर्ववेद, ४१६ ५. मनुस्मृति, ४/२२५ ६. 'सर्वस्तेयकृत', मनुस्मृति, ४/२५६ ७. शतपथब्राह्मण, ३/१/२/१० तथा १/१/१/१ ८. शतपयब्राह्मण, २/२/१/१६ १. ऋग्वेद, ७/१०४/२२ १०. 'सत्येन धार्यते पृथ्वी, सत्येन तपते रविः । सत्येन वायवो बान्ति, सर्व सत्ये प्रतिष्ठितम् ।।' ११. 'अश्वमेध सहस्र च सत्यं च तुलयाधृतम् । __ अश्वमेध सहस्रादि, सत्यमेक विशिष्यते ॥', शिवपुराण, उ० सं०, १२/२५ १२. 'दद्यान्न प्रतिगृह्वीयात् सत्यं ब्रूयान्न चानृतम् । ___अपि जीवितहेतीवा, रामः सत्यपराक्रम ॥', वाल्मीकि रामायण, ५/३३/२५ १३. 'अनृतं नोक्तपूर्व मे न च वक्ष्मे कदाचन ।' १४. 'सत्य मूल सब सुकृत सुहाए।', रामचरितमानस, २/२७/६ १५. 'सत्यमेव जयति नानृतं, सत्येन पन्था विततो देवयानः। येनाक्रमन्त्य॒षयो ह्याप्तकामा, यत्र तत् सत्यस्य परम निधानं ॥', अथर्ववेद जैन दर्शन मीमांसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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