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अन्य दर्शनों में अनेकान्तवाद के तत्त्व
श्री सुव्रत मुनि शास्त्री
जैन दर्शन का सर्वाधिक विशिष्ट सिद्धान्त 'अनेकान्तवाद' है। 'अनेकान्तवाद' शब्द तीन शब्दों के मेल से बना हुआ संयुक्त शब्द है। वे तीन शब्द हैं --अनेक+अन्त+वाद । 'अनेकान्तवाद' शब्द का अर्थ इन तीनों शब्दों के अनुरूप ही है । अनेक का सीधा-सा अर्थ है-- एक न होकर बहुत, अन्त का अर्थ है --- धर्म अथवा गुण और वाद का अर्थ यहां पर कथन है।
जैन दर्शन के मन्तव्य के अनुसार जगत् की प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मों का पुञ्ज है; असंख्य गुणों का समूह है। इसीलिए उस सिद्धान्त को अनेकान्तवाद कहा जाता है, जिसमें वस्तु के किसी एक धर्म का नहीं, अपितु वस्तुगत समस्त धर्मों का समादर किया जाता है। एक मनीषी आचार्य ने अनेकान्तवाद का स्वरूप बताते हुए कहा है अनन्तधर्मात्मकं वस्तु । तत्त्व क्या है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि--- अनन्तधर्मात्मकमेव तत्त्वम् ।
वस्तु अपने आप में अनन्त है, पर उसके समग्र रूप को कभी एक साथ व्यक्त नहीं किया जा सकता। 'अनेकान्तवाद' वस्तुतः 'वाद' अर्थात् विवाद नहीं है, वह तो एक प्रकार का संवाद है । अतः अनेकान्त के साथ प्रचलित अर्थ में 'वाद' न लगाकर दृष्टि' लगाना ही अधिक उपयुक्त है। अनेकान्त-दृष्टि, वह दृष्टि है जिसमें किसी एक ही धर्म और गुण को नहीं पकड़ा जाता, बल्कि एक को प्रधानता दी जाती है। जब एक को प्रधानता दी जाती है तो यह स्वाभाविक है कि शेष को गौणता प्राप्त हो जाती है। गौण-प्रधान-भाव से वस्तु का कथन करना यही अनेकान्त-दृष्टि अथवा अनेकान्तवाद कहा जाता है। जैसा कि पहले बताया गया है-'वाद' का अर्थ है- कथन करना।
भगवान् महावीर ने जो कुछ कहा था वह उनके कहने से अनेकान्तमय नहीं हुआ, लेकिन पदार्थों की जैसी स्थिति थी, वैसा ही उनका कथन था। यथार्थ का ज्ञाता एवं द्रष्टा ही यथार्थ-भाषी होता है; अन्यथा-भाषी नहीं।
अनेकान्त-दृष्टि अथवा अनेकान्तवाद, क्या जैन परम्परा का ही एकमात्र सिद्धान्त है ? क्या वैदिक परम्परा में और बौद्ध परम्परा में इस प्रकार के विचार उपलब्ध नहीं हैं ? निश्चय ही वहां पर भी इस प्रकार के विचार उपलब्ध होते हैं। वैदिक-परम्परा का आदि-ग्रन्थ 'ऋग्वेद' माना जाता है, बल्कि विश्व की समस्त पुस्तकों में उसे प्रथम पुस्तक माना जाए तो भी अनुचित नहीं होगा। ऋग्वेद में इस प्रकार के विचारों के सूक्ष्म बीज यत्र-तत्र बिखरे हुए उपलब्ध होते है। ऋग्वेद में एक स्थान पर कहा है-एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति । सत्य एक ही है, किन्तु विद्वान् लोग उसका कथन अनेक प्रकार से करते हैं। मुण्डकोपनिषद् में एक शिष्य ने गुरु से प्रश्न किया, “वह कौन-सी वस्तु है, जिसके ज्ञान से वस्तुमात्र का ज्ञान हो जाता है"। इसके उत्तर में गुरु ने कहा था--एकेन मृत्पिण्डेन विज्ञातेन मण्मेयं विज्ञातं स्यात् मिट्टी के एक ढेले को जान लेने पर सारी मिट्टी का ज्ञान हो जाता है। इसी प्रकार का प्रश्न छान्दोग्योपनिषद् में पूछा गया है। इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि उपनिषद् काल के ऋषियों ने भी इस अनेकान्त पर अवश्यमेव विचार किया होगा।
बौद्ध-परम्परा में अनेकान्तवाद और अनेकान्त-दृष्टि जैसे शब्दों का प्रयोग तो नहीं है। हां, जैन-परम्परा के स्याद्वाद से मिलताजुलता एक शब्द बौद्ध-परम्परा के साहित्य में उपलब्ध होता है-'विभज्यवाद'। विभज्यवाद का प्रयोग सुप्रसिद्ध जैन अङ्ग-सूत्र 'सूयगड' में भी किया गया है.--विभज्यवायं च वियागरेज्जा।। विभज्यवाद का सामान्य अर्थ है--विभाग करके कथन करना। बुद्ध जब किसी भी तत्त्व का प्रतिपादन करते हैं, तब वे सापेक्षतावाद को ध्यान में रखकर ही कथन करते थे। बौद्ध परम्परा का मध्यम मार्ग एक प्रकार से जैन परम्परा के स्याद्वाद और अनेकान्तवाद का ही एक प्रतीक है। जैन दर्शन जिस प्रकार जगत् को सत् एवं असत् कहता है, उसी प्रकार माध्यमिक बौद्ध भी कहता है। अस्ति और नास्ति ये दोनों अन्त हैं; शुद्धि और अशुद्धि ये दोनों भी अन्त हैं। तत्त्वज्ञानी इन दोनों अन्तों को त्यागकर मध्य में स्थित होता है। समाधिराज-सूत्र में कहा गया है
अस्तीति नास्तीति उभेऽपि अन्ता :
___शुद्धि-अशुद्धि इमेऽपि अन्ताः । तस्माद् उभे अन्त विवर्जयित्वा,
मध्ये हि स्थानं प्रकरोति पण्डितः ।।
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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