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जाता है। सत्य विराट् और अखण्ड है । शब्दों के असीम घेरे में वस्तु के अनन्त अनन्त गुणों की व्याख्या करना कदापि संभव नहीं है, किन्तु यह भी ज्ञातव्य है कि उसके केन्द्र में मुख्य पहलुओं को अलग-अलग रूप से समाहार रूप में समझकर उस पदार्थ की अखण्डता का परिबोध किया जाता है । इस सिद्धान्त की गौरव गरिमा स्वयमेव सिद्ध है कि वह विभिन्न दृष्टियों को एक ही केन्द्र में संस्थापित करता है और वस्तु की सत्यता का विवेचन करता है, इससे यह स्पष्ट होता है कि स्याद्वाद समस्त विरोधात्मक विचारों को शान्त करता है । वस्तु के स्वरूप का सच्चा परिचायक है । इस सिद्धान्त के अभाव में पग-पग पर विसंवाद खड़े होते रहते हैं। जब अनेकान्तवाद स्याद्वाद की कल्याणकारिणी महागंगा में रहता है, तब किनारों के मिथ्यावादों का निराकरण भी स्वतः हो जाता है । यह मौलिक और विशिष्ट वाद अपनी अलौकिक विभिन्न नयों की तरल उत्ताल तरंगों से तरंगित होता है और वह अनेकान्तात्मक पदार्थ के विषय में सुस्पष्ट रीत्या प्रतिपादन करता है ।
सारपूर्ण शब्दों में यह कथन भी समुचित होगा कि जैन दर्शन में समन्वयात्मक दृष्टिकोण को लेकर स्याद्वाद का आविष्कार हुआ । विविध दृष्टियों को यथाप्रसंग कभी मुख्य तो कभी गौण करने पर समन्वय रूपी नवनीत उपलब्ध होता है। यह समन्वय विधि यथार्थवाद की आधारभूमि पर निर्मित है। अतः स्याद्वाद सिद्धान्त की व्यापक परिधि में निरपेक्ष काल्पनिक दृष्टिकोण का अवकाश नहीं है ।
वस्तुतः स्याद्वाद दार्शनिक विवादों में वैचारिक समन्वय की संस्थापना करता है और वह दार्शनिक क्षितिज पर सहस्र किरण दिवाकर की भाँति दीप्तिमान है, और उसकी दिव्य रश्मियाँ युग-युग तक विकीर्ण होती रहेंगी ।
स्यात् अर्थात् किसी अपेक्षा से कहना स्याद्वाद है। एक पदार्थ में बहुत से विरोधी प्रतीत होने वाले स्वभाव होते हैं । सबका वर्णन एक बार या एक ही काल में नहीं हो सकता, एक का ही हो सकता है। जिस काल में जिस स्वभाव का कथन करना हो, उसके साथ स्यात् — कथञ्चित् या किसी अपेक्षा से का प्रयोग करना ही स्याद्वाद है । उदाहरण के लिए एक पुरुष एक समय में पिता, पुत्र, भाई, भान्जा, मामा आदि अनेक रूपों से युक्त होता है। उसके किसी एक रूप का कथन इस प्रकार करना चाहिए – स्यात् पिता है अर्थात् किसी अपेक्षा से ( अपने पुत्र की अपेक्षा से ) पिता है। स्यात् पुत्र है अर्थात् किसी अपेक्षा से (अपने माता-पिता की अपेक्षा से) पुत्र है। स्थात् भाता है अर्थात् अपने भ्राता या भगिनी की अपेक्षा से भ्राता है, इत्यादि । इसी प्रकार आत्मा भी अस्ति स्वभाव, नास्ति स्वभाव, नित्य स्वभाव, अनित्य स्वभाव, एक स्वभाव, अनेक स्वभाव आदि विरोधी स्वभावों का धारक है । इन्हीं विरोधी स्वभावों को समझाने के लिए सात भंग कहे जाते हैं, जो गुरु-शिष्य के मध्य सात प्रश्नोत्तर हैं। जैसे१. क्या आत्मा नित्य है ? हां, आत्मा सदा बने रहने के कारण नित्य है- स्यात् आत्मा नित्यः स्वभावः ।
२. क्या आत्मा अनित्य है ? हां, अवस्थाओं को परिवर्तित करते रहने के कारण आत्मा अनित्य है—स्यात् आत्मा अनित्य: स्वभाव: ।
३. क्या आत्मा नित्य अनित्य दोनों है ? हां, आत्मा एक ही काल में नित्यानित्य स्वभावों से युक्त है—स्यात् आत्मा नित्यानित्य: स्वभाव: । जैसे सोने की अंगूठी को तोड़कर कुण्डल बनाने पर उसमें सोना नित्य है, किन्तु कुण्डस या अंगूठी रूप पर्याय अनित्य है।
४. क्या हम दोनों को एक साथ नहीं कह सकते ? हां, शब्दों में शक्ति न होने से आत्मा अवक्तव्य है - स्यात् आत्मा अवक्तव्यः स्वभावः ।
५. क्या अवक्तव्य होते हुए नित्य है ? हां, जिस समय अवक्तव्य है, उस समय नित्य भी है-- स्यात् आत्मा नित्या
वक्तव्यः स्वभावः ।
६. क्या अवक्तव्य होते हुए अनित्य है ? हां, जिस समय अवक्तव्य है, उस समय अनित्य भी है— स्यात् आत्मा अनित्यावक्तव्य: स्वभाव: ।
७. क्या अवक्तव्य होते हुए नित्यानित्य भी है ? हां, जिस समय अवक्तव्य है, उस समय नित्यानित्य भी है— स्यात् आत्मा नित्यानित्यावक्तव्यः स्वभावः ।
इस प्रकार किसी भी पदार्थ को समझने के लिए स्याद्वाद आवश्यक है। जब तक स्याद्वाद से पदार्थ को न समझेंगे तब तक हम पदार्थ को ठीक नहीं समझ सकते । प्रत्येक पदार्थ में स्व की अपेक्षा से भाव तथा पर की अपेक्षा से अभाव होता है, अत: एक पदार्थ को दूसरे से पृथक् समझने के लिए यह सिद्धान्त दर्पणवत् है। राजपात्तिककार अकलंकदेव ने कहा भी है स्वपरावाना पोहनव्यवस्थापायं खलु वस्तुनो वस्तुत्वम् ।
( आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज कृत उपदेश-सार-संग्रह, भाग-६, दिल्ली, बी०नि०सं० २४६० से उद्धृत )
जैन दर्शन मीमांसा
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