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________________ और स्याद्वाद का फल उपयोगात्मक है । सारपूर्ण शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि अनेकान्तवाद ने स्याद्वाद की मान्यताओं को जन्म दिया है अतः अनेकान्तवाद एक वृक्ष है और उसका फल स्याद्वाद है । स्याद्वाद की यह उल्लेखनीय विशेषता है कि वह हमें चिन्तन की एकांगी पद्धति से बचाकर सर्वांगीण विचार के लिए उत्प्रेरित करता है, इसका परिणाम यह आता है कि हम सत्य के विभिन्न पहलुओं से भली-भांति परिचित हो जाते हैं। समग्र सत्य को समझाने के लिए स्याद्वाद दृष्टि ही एकमात्र सफल साधन है। स्याद्वाद पद्धति से ही विराट् सत्य का साक्षात्कार हो जाता है, जो विचारक पदार्थ के अनेक गुणधर्मों को ओझल करके किसी एक ही धर्म का प्रतिपादन करता है, उसी धर्म को पकड़कर अटक जाता है, वह कभी भी सत्य ज्योति के परिदर्शन नहीं कर सकता। जब हमारा चिंतन अभेद प्रधान होता है तब प्रत्येक प्राणी में चेतना की दृष्टि से समानता है और चेतना से बढ़कर सत्ता को आधार बताते हैं। तो चेतन और अचेतन समझा हुआ पदार्थ सत् स्वरूप में एकाकार प्रतीत होता है। जब हमारा दृष्टिकोण भेद की प्रधानता को लिए होता है, तो अधिक-से-अधिक समान प्रतीत हो रहे दो पदार्थों में भिन्नता होती है। स्याद्वाद यह एक दिव्य आलोक है जो हमें निराशा के सघन अंधकार से बचाता है और वह दिव्य दृष्टि हमें एक ऐसी विचारधारा की ओर ले जाती है, जहां पर सभी प्रकार के विरोधात्मक विचारों का दार्शनिक समस्याओं का निराकरण हो जाता है । अनेकान्त अनन्त-धर्म वस्तु-स्वरूप की एक दृष्टि है, और स्याद्वाद एवं सप्तभंगीवाद ये दोनों उस ज्ञानात्मक दृष्टिकोण को अभिव्यक्त करने के लिए सापेक्ष वचन पद्धति है । अनेकान्त एक लक्ष्य है तो स्याद्वाद सप्तभंगीवाद साधन है, उस समझाने का एक सुन्दर प्रकार है । अनेकान्त का जो क्षेम है वह बहुत ही व्यापक है और स्याद्वाद सप्तभंगीवाद का क्षेम व्याप्य है। इस प्रकार इन दोनों में व्याप्य व्यापकभाव सम्बन्ध है । सप्तभंगीवाद स्याद्वाद का आधारस्तम्भ है। पदार्थगत जो धर्म है वह सापेक्ष है, यही कारण है कि उसका विश्लेषण भी अपेक्षा दृष्टि से होगा। इसी सन्दर्भ में यह एक तथ्य ज्ञातव्य है कि स्याद्वाद जहां पदार्थ का सापेक्ष विश्लेषण प्रस्तुत करता है, वहां सप्तभंगीवाद पदागत अनन्त अनन्त धमों में से प्रत्येक गुण-धर्म का तर्क संगत विश्लेषण करने की प्रक्रिया को प्रस्तुत करता है। यहां पर एक विचारणीय प्रश्न उपस्थित होता है कि यह सप्तभंगी क्या है ? और उसका उपयोग क्या है ? प्रस्तुत प्रश्न का समाधान यह है कि प्रत्येक पदार्थ के स्वरूप प्रतिपादन में सात प्रकार के वचनों का प्रयोग किया जाता है। एक वस्तु में अविरोधभाव से एक धर्म के विषय में जो विधि निषेध की परिकल्पना की जाती है, उस धर्म के सम्बन्ध में सात प्रकार से विवेचन विश्लेषण सम्भव है इसीलिए इसे सप्तभंगी कहते हैं। भंग शब्द का वाच्य अर्थ है - विकल्प, प्रकार या भेद । प्रत्येक शब्द के दो अर्थ होते हैं- विधि और निषेध । प्रत्येक विधि के साथ निषेध जुड़ा हुआ है और प्रत्येक निषेध के साथ विधि । एकान्ततः न कोई विधि है और एकांत रूप से न कोई निषेध है । प्रत्येक वस्तु के सम्बन्ध में जो भी विवेचन विश्लेषण किया जाता है वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से दिया जाता है। इस सन्दर्भ में यह ज्ञातव्य है कि जिस वस्तु का विवेचन किया जा रहा है, उस विवेच्य वस्तु के साथ स्यात् पद का प्रयोग करना अतीव आवश्यक है, क्योंकि प्रधान अथवा गौण की विवक्षा सूचना इस पद के माध्यम से संप्राप्त होती है। स्यात् पद अस्-भुवि धातु से निष्पन्न हुआ है । स्यात् यह संस्कृत रूप है और इसका प्राकृत रूपान्तर सिया होता है। जैन दर्शन में इसका प्रयोग एक विशिष्ट अर्थ में किया गया है। इसका अर्थ है कथंचित् किसी अपेक्षा से स्यात् की व्याकरणा व्युत्पत्ति इस प्रकार है—अस् धातु का विधिलिंग लकार प्रथम पुरुष एक वचन का रूप है। जैन साहित्य का पर्यवेक्षण करने पर यह स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है कि स्यात् को सापेक्ष विधान का वाचक अव्यय बनाकर अपने अनेकान्तात्मक विचार को प्रकट करने का साधन बताया गया है । स्यात् और कथंचित् ये दोनों ही एक अर्थ के परिबोधक हैं। स्यात् श्रोता को विवक्षित धर्म का प्रधान रूप से ज्ञात कराता है और पदार्थ के अविवक्षित धर्मों के अस्तित्व की तत्प्रतिपक्षी धर्म की सूचना देता है इस पद के साथ किसी भी पदार्थ का विवेचन अधिक-से-अधिक सात प्रकार से हो सकता है । सात से भी अधिक प्रकारों से वस्तु का विश्लेषण सम्भव नहीं है। इसी कारण इसे सप्तभंगी कहते हैं । वे सात भंग इस प्रकार हैं : (१) स्यात् अस्ति घट, (२) स्यात् नास्ति घटः, (३) स्यात् अस्ति नास्ति घटः, ( ४ ) स्यात् अवक्तव्य घटः, (५) स्यात् अस्ति अवक्तव्य घटः, (६) स्यात् नास्ति अवक्तत्र्य घटः, (७) स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य घटः । प्रस्तुत सप्तभंगी में अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य ये तीन ही मूलभूत मंग हैं। इसमें से अस्ति, नास्ति, अस्ति अवक्तव्य, नास्ति अवक्तव्य ये तीन द्विसंयोगी भंग हैं। इस तरह सात भंग होते हैं। प्रत्येक भंग निश्चयात्मक है, वह कभी-कभार भी अनिश्चयात्मक नहीं हो सकता। यही कारण है कि अनेक बार एक ही का प्रयोग भी होता रहा है, जैसेकि स्याद् घट अस्त्येव । यहां पर एव का प्रयोग स्वचतुष्टय की अपेक्षा निश्चितरूपेण घट का अस्तित्व प्रकट करता है। यदि एव का प्रयोग नहीं हुआ, तथापि प्रत्येक कथन को निश्चयात्मक ही समझना चाहिए। स्याद्वाद सिद्धान्त ने संदेहास्पद कथन का समर्थन नहीं किया है और वह अनिश्चय का भी समर्थक नहीं है । जैन दर्शन मीमांसा Jain Education International For Private & Personal Use Only २३ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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