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माणिक्यनन्दी-ये विक्रमीय नवम शती के प्रकाण्ड विद्वान थे। इन्होंने परीक्षामुख नामक सूत्र-ग्रन्थ की रचना की। इसमें प्रमाण और प्रमाणाभासों का विवेचन किया गया है।
___ वादिराज-ये विक्रमीय दशम शताब्दी के तार्किक थे। तार्किक होने के साथ ही उच्चकोटि के कवि भी थे। इन्होंने पार्श्वनाथचरित, यशोधरचरित, एकोभावस्तोत्र, न्यायविनिश्चयविवरण, प्रमाणनिर्णय आदि ग्रन्थों की रचना की है । अध्यात्माष्टक और त्रैलोक्यदीपिका भी इन्हीं की रचनाएं मानी जाती हैं।
प्रभाचन्द्र ---इन्हें विक्रमीय १०वीं-११वीं शती का आचार्य माना जाता है। इनकी प्रमुख रचनाएं प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र, तत्त्वार्थवृत्तिपदविवरण, शाकटायनन्यास, शब्दाम्भोजभास्कर तथा प्रवचनसारसरोजभास्कर हैं। इनसे पूर्व यद्यपि जैन न्याय का निरन्तर विकास देखने में आता है, तथापि सभी पूर्वकालीन जैनाचार्य न्याय के विवेचन में आगमों का आश्रय लेने का मोह नहीं छोड़ सके। फलतः उनकी कृतियों में जैनागमोक्त मति, श्रुत आदि ज्ञान-भेदों का प्रमाणों से समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया गया। परन्तु प्रभाचन्द्र ने जैन दर्शन की परम्परा का अनुसरण करते हुए भी प्रमाण-मीमांसा को आगमोक्त ज्ञान-भेदों से सर्वथा विविक्त रखा।
अभयदेव सूरि--ये विक्रमीय ११वीं शताब्दी के आचार्य थे। ये प्रद्युम्न सूरि के शिष्य थे। इन्होंने सिद्धसेन के सन्मतितर्क पर बहुत ही विद्वत्तापूर्ण एवं विशाल टीका लिखी। इस टीका में सैकड़ों दार्शनिक ग्रन्थों का निचोड़ समाहित है।
अनन्तवीर्य-इनका काल १०वीं शताब्दी है। इन्होंने माणिक्यनन्दी के परीक्षामुख पर प्रमेयरत्नमाला नाम की टीका लिखी।
वादिदेव सुरि-ये १२वीं शती के आचार्य हैं। इन्होंने प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार और स्याद्वादरत्नाकर नाम के दो महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की।
__ हेमचन्द्र-ये १२वीं शताब्दी के विद्वान् थे। इन्हें सभी विषयों का पूर्ण ज्ञान था, इसीलिए इन्हें कलिकालसर्वज्ञ कहा जाता था। इनकी कृतियों में शब्दानुशासन, काव्यानुशासन, छन्दोनुशासन, अभिधानचिन्तामणि, देशीनाममाला, द्वयाश्रयमहाकाव्य, प्रमाणमीमांसा, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, योगशास्त्र तथा कुछ द्वात्रिंशिकाएं प्रसिद्ध हैं। इन रचनाओं में अध्ययन की प्रत्येक विधा विद्यमान है।
जैन दर्शन के इस युग में ११वीं-१२वीं शताब्दी को मध्यकाल माना जाता है । इसके पश्चात् इस युग का ह्रासकाल है, जिसके अन्तर्गत १३वीं शताब्दी में मल्लिषेण की स्याद्वादमंजरी, रत्नप्रभसूरि की स्याद्वादरत्नाकरावतारिका, चन्द्रसेन की उत्पादादिसिद्धि, रामचन्द्र गुणचन्द्र" का द्रव्यालंकार आदि ग्रंथ लिखे गए। १४वीं शताब्दी में सोमतिलक की षड्दर्शनसमुच्चयटीका और १५वीं शताब्दी में१२ गणरत्न की षडदर्शनसमुच्चयबहवृत्ति, राजशेखर की स्याद्वादकलिका आदि, भावसेन विद्य का विश्वतत्त्वप्रकाश आदि ग्रन्थों की रचना हुई। धर्मभूषण की न्यायदीपिका भी इस युग की महत्त्वपूर्ण कृति है।
इस युग के अन्तर्गत सातवीं और आठवीं शताब्दी दर्शनशास्त्र के इतिहास में विप्लव का युग था। इस समय नालन्दा विश्वविद्यालय के आचार्य धर्मपाल के शिष्य धर्मकीर्ति का सपरिवार उदय हुआ। शास्त्रार्थों की धूम मची हुई थी। धर्मकीर्ति ने सदलबल प्रबल तर्कबल से वैदिक दर्शनों पर प्रहार किए। जैन दर्शन भी इनके आक्षेपों से नहीं बचा था। यद्यपि अनेक विषयों में जैन और बौद्ध दर्शन समानतन्त्रीय थे, पर क्षणिकवाद, नैरात्म्यवाद, शून्यवाद, विज्ञानवाद आदि बौद्ध वादों का दृष्टिकोण ऐकान्तिक होने के कारण दोनों में स्पष्ट विरोध था और इसीलिए इनका प्रबल खण्डन जैन न्याय के ग्रन्थों में पाया जाता है । धर्मकीर्ति के आक्षेपों के उद्धारार्थ इसी समय प्रभाकर, व्योमशिव, मण्डनमिश्र, शंकराचार्य, भट्टजयन्त, वाचस्पतिमिश्र, शालिकनाथ आदि वैदिक दार्शनिकों का प्रादुर्भाव हुआ। इसी
१. कैलाशचन्द्र शास्त्री : जैन धर्म, प० २६६ २. महेन्द्रकुमार जैन : न्यायविनिश्चय विवरण (भाग १) की प्रस्तावना, पृ० ४५ ३. महेन्द्रकुमार जैन : प्रमेयकमलमार्तण्ड की प्रस्तावना, पृ० ६७ ४. सुखलाल संघवी और बेचरदास दोशी : सन्मतितर्क की गजराती प्रस्तावना, प०६३ ५. हीरालाल जैन : प्रमेयरत्नमाला की प्रस्तावना, पृ०४५ ६. Satish Chandra Vidyabhusana : A History of Iodian Logic, पृ० १६८ ७. रसिकलाल पारिख : प्रमाणमीमांसा की प्रस्तावना, पृ० ३५, ४३ ६. द्रष्टव्य...श्री श्रीचन्द चोरड़िया :प्रमाणमीमांसा-एक अध्ययन, प०१०५-११२ ६. Satish Chandra Vidyabhusana : A History of Indian Logic, पृ० २११-२१२ १०. महेन्द्र कुमार जैन : जैन दर्शन, पृ०२५ ११. वही १२. वही १३. वही
मैन दर्शन मीमांसा
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