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लिए संव्यवहार प्रत्यक्ष के रूप में निरूपित किया ।
ईसा की पञ्चम शती तक बौद्ध, नैयायिक, मीमांसक, सांख्य आदि दार्शनिक एक-दूसरे के पक्ष का निरसन कर अपने-अपने पक्ष की सिद्धि के लिए प्रयत्नशील थे। बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन ने शून्यवाद की उपस्थापना की और तद्द्वारा वस्तु को सापेक्ष सिद्ध किया। असंग और वसुबन्धु ने विज्ञानवाद की स्थापना की। दिङ्नाग ने अपने गुरु वसुबन्धु का समर्थन करने के लिए नूतन प्रमाण-शास्त्र की रचना की। बौद्धों के विरोध में नैयायिक वात्स्यायन ने आत्मादि प्रमेयों की आवश्यकता पर बल दिया। मीमांसक शबरस्वामी ने वेदापौरुषेयत्ववाद का समर्थन किया तथा सांख्यों ने भी अपने पक्ष की सिद्धि का प्रयत्न किया।
जैन दार्शनिकों ने भी अनेकान्तवाद की तार्किक स्थापना करके दार्शनिकों के इस संघर्ष का लाभ उठाया। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि आगम युग में जो स्वमत-प्रदर्शन का भाव होने से खण्डनात्मक ग्रन्थ-निर्माण की प्रवृत्ति का अभाव था, उसे इस युग के आचार्यों ने युक्तियुक्त खण्डन और स्वमत-स्थापन की भावना से जैन-न्याय और प्रमाणशास्त्र का निर्माण करके दूर कर दिया।
इस अनेकान्त-स्थापन युग में जैनाचार्यों ने अनेकान्तवाद का प्रबल समर्थन किया। यहां तक कि तत्कालीन विभिन्न वादों को नयवाद में सन्निहित कर सभी दर्शनों के समन्वय का मार्ग सुझाया। इसके अतिरिक्त विरोधी वादों में अनेकान्त की योजना करके अपने मत को सबल बनाया। (३) न्याय-प्रमाणस्थापन युग
यह युग विक्रमीय आठवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक लगभग एक हजार वर्ष का है। इस युग में ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय आदि सभी पदार्थों का निरूपण ताकिक शैली से संस्कृत भाषा में शास्त्रबद्ध किया गया। इस युग के प्रमुख आचार्य निम्नलिखित हैं
अकलंक—ये ईसा की आठवीं शताब्दी के उत्कृष्ट विचारक थे। जैन दर्शन को इन्होंने जो रूप दिया, उसे उत्तरकालीन जैन दार्शनिकों ने अपनाया। इनकी रचनाएं दो प्रकार की हैं-एक, पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों पर भाष्य-रूप और दूसरी, स्वतन्त्र । प्रथम प्रकार की रचनाएं तत्त्वार्थराजवातिक, अष्टशती आदि हैं। दूसरी प्रकार की रचनाओं में लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, प्रमाणसंग्रह, स्वरूपसम्बोधन, बृहत्त्रय, न्यायचूलिका, अकलंकस्तोत्र, अकलंकप्रायश्चित्त, अकलंकप्रतिष्ठापाठ आदि ग्रन्थ सम्मिलित किए जाते हैं। इन सभी ग्रन्थों में जैन न्याय के सभी पक्षों को तो स्पष्ट किया ही गया है, किन्तु न्याय, वैशेषिक, व्याकरण-दर्शन, बौद्ध तथा श्वेताम्बर जैनों के मतों को पूर्वपक्ष रूप में स्थापित करके उनका विद्वत्तापूर्वक निराकरण किया गया है।
हरिभद्र-हरिभद्रसूरि विक्रमीय आठवीं शताब्दी में श्वेताम्बर-सम्प्रदाय के बहुमान्य विद्वान् हुए हैं। इन्होंने संस्कृत और प्राकृत में अनेक ग्रन्थों की रचना की। इन्होंने अनेकान्तवादप्रवेश, अनेकान्तजयपताका, षड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवार्तासमुच्चय, न्यायप्रवेशटीका आदि ग्रन्थों का प्रणयन किया। इन्होंने भी परमत-निराकरण करते हुए जैन सिद्धान्तों को पुष्ट किया।
अनन्तवीर्य—ये विक्रमीय अष्टम-नवम शती के आचार्य थे। इन्होंने भी अकलंक-कृत सिद्धिविनिश्चय पर टीका लिखी। यह टीका मुख्यतः बौद्ध दर्शन के खण्डन के लिए बनाई गई।
विद्यानन्द-ये विक्रमीय नवम शती के अत्यन्त समर्थ विद्वान् थे। इन्होंने भी अकलंक की भांति दो प्रकार के ग्रन्थों की रचना की-एक, टीका-ग्रन्थ तथा दूसरे, स्वतन्त्र ग्रन्थ । अष्टसहस्री, तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक और युक्त्यनुशासनटीका तो टीका-ग्रन्थ हैं । आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा और सत्यशासनपरीक्षा स्वतन्त्र ग्रन्थ हैं। इन ग्रन्थों में इन्होंने पूर्व-परम्परा को मानते हुए ही जैन दर्शन का प्रतिपादन किया, परन्तु पत्रपरीक्षा में लिखित शास्त्रार्थ के विभिन्न पहलुओं पर इन्होंने एकदम मौलिक चर्चा प्रस्तुत की।
१. द्रष्टव्य-डॉ० सत्यदेव मिश्र : स्याद्वाद, प०२६-३२ २. द्रष्ट व्य-डॉ० अरुण लता जैन : समन्वय का मार्ग स्याद्वाद, पृ० ३३-३६
उपाध्याय श्री अमर मुनि : समन्वय का अमोघ दर्शन-अनेकान्त, पृ० १३७-१३८ ३. द्रष्टव्य-श्री सुनतमुनि शास्त्री : अन्य दर्शनों में अनेकान्त के तत्त्व, पृ०२६-२८ ४. Satish Chandra Vidyabhusana : A History of Indian Logic, पृ० १८६
M. Winternitz : History of Indian Literature (Vol. II), पृ०५८८ A. B. Keith : History of Sanskrit Literature, पृ० ४६७ सुखलाल : न्यायकुमुदचन्द्र (भाग २) का प्राक्कथन, पृ० १६ ५. कैलाश चन्द्र शास्त्री : जैन धर्म, प० २७२ ६. परमानन्द शास्त्री : जैन धर्म का प्राचीन इतिहास (भाग २), पृ० २४० ७. वही, पृ० २००-२०१
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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