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________________ दर्शन अनेक विपरीत दार्शनिक विचारधाराओं एवं शाखाओं में विभक्त नहीं हुआ है। भारतीय दर्शन की प्रणालियों को दो मुख्य वर्गों में विभाजित किया जाता है -आस्तिक दर्शन एवं नास्तिक दर्शन । आस्तिक दर्शन, जो सनातन धारा के अनुयायी हैं, षडंग के रूप में प्रचलित हैं तथा निम्न छ: शाखाओं में विभाजित हैं—सांख्य, योग, वेदान्त, मीमांसा, न्याय एवं वैशेषिक । ये साधारणतया षड्दर्शन के नाम से प्रचलित हैं। नास्तिकवादी विचारधारा के अनुसार वेद साधारण ग्रन्थ के रूप में माने जाते हैं, स्वतःप्रमाण नहीं माने जाते और यह आवश्यक नहीं समझा जाता कि सिद्धान्तों की पुष्टि के लिए वेदों को ही आधार माना जाए। ये नास्तिक दर्शन मुख्यतः तीन हैं—बौद्ध, जैन तथा चार्वाक । जैनाचार्य हरिभद्र सूरि इस विभाजन का विरोध करते हैं। उनके अनुसार नास्तिक दर्शन केवल चार्वाक है तथा आस्तिक (मूल) दर्शन बौद्ध, नैयायिक, सांख्य, जैन, वैशेषिक और जैमिनीय हैं, जिन्हें षड्दर्शन संज्ञा से अभिहित किया जा सकता है। अस्तु, ऐसा प्रयास होने पर भी जैन दर्शन को नास्तिक दर्शनों की कोटि में ही परिगणित किया जाता है। जैन दर्शन का क्रमिक विकास जैन दर्शन सम्बन्धी साहित्य का निर्माण एक दीर्घ काल में सम्पन्न हुआ। इस लम्बे काल में जैन दर्शन का क्रमिक विकास भी परिलक्षित होता है', यद्यपि मूल मान्यताएं नहीं बदली हैं। जैन दर्शन के क्रमिक विकास को समझने के लिए जैन दार्शनिक साहित्य को प्रायः निम्नलिखित चार युगों के अन्तर्गत विभक्त किया जाता है(१) आगम युग (२) अनेकान्तस्थापन युग (३) न्याय-प्रमाणस्थापन युग (४) नव्य-न्याय युग (१) आगम युग यह युग भगवान् महावीर या उनके पूर्ववर्ती भगवान् पार्श्वनाथ से लेकर आगम-संकलना—विक्रमीय पञ्चम-षष्ठ शताब्दी तक का लगभग एक हजार या बारह सौ वर्ष का है। इस युग में प्राकृत तथा लोकभाषाओं की ही प्रतिष्ठा रही, जिससे संस्कृत भाषा में साहित्य-सृजन की प्रवृत्ति उपेक्षित रही। अंग-साहित्य ---जैन धर्म के सभी सम्प्रदायों में सभी आगमों का मूल आधार गणधर-ग्रथित द्वादशांग को माना गया है । ये द्वादशांग हैं"..--(१) आचार, (२) सूत्रकृत, (३) स्थान, (४) समवाय, (५) व्याख्याप्रज्ञप्ति, (६) ज्ञातृधर्मकथा, (७) उपासकदशा, (८) अंतकृद्दशा, (६) अनुत्तरोपपातिकदशा, (१०) प्रश्नव्याकरण, (११) विपाक तथा (१२) दृष्टिवाद। सभी जैन सम्प्रदाय एकमत से अन्तिम अंग दृष्टिवाद का सर्वप्रथम लोप स्वीकार करते हैं। अंग-साहित्य का क्रमिक ह्रास-दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुसार भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद आगम के मूल अंगों का क्रमिक ह्रास होता गया और ६८३ वर्ष बाद कोई अंगधर या पूर्वधर आचार्य नहीं रहा। बाद में अंगों और पूर्वो के अंशमात्र के ज्ञाता आचार्य ही हुए। जिनमें पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्यों ने षट्खण्डागम और आचार्य गुणधर ने कषायपाहुड की रचना की। दिगम्बर सम्प्रदाय में इन दोनों ग्रन्थों को ही आगम का स्थान प्राप्त है, क्योंकि उनके अनुसार द्वादशांगमूलक आगम लुप्त हो चुके हैं। दिगम्बरों के मत में वीर-निर्वाण के बाद आगम-परम्परा का जो क्रमिक ह्रास हुआ, वह इस प्रकार है-भगवान् महावीर के निर्वाण के १२ वर्ष पश्चात् गौतम इन्द्रभूति को निर्वाण प्राप्त हुआ। गौतम इन्द्रभूति के १२ वर्ष बाद जैन संघ का भार अपने शिष्य जम्बूस्वामी को सौंपकर आर्य सुधर्मा ने निर्वाण प्राप्त किया। जम्बूस्वामी ने ३८ वर्ष तक जैन संघ का कार्यभार वहन करने के अनन्तर निर्वाणलाभ किया। इस प्रकार भगवान् महावीर के निर्वाण के ६२ वर्ष पश्चात् केवलज्ञान तथा निर्वाण का मार्ग अवरुद्ध हो गया। इसके अनन्तर विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्द्धन तथा भद्रबाहु नामक पांच श्रुतकेवली हुए, जिन्हें ग्यारह अंग तथा चौदह पूर्वो का ज्ञान था। इन श्रुतकेवलियों का कुल समय १०० वर्ष था। इसके पश्चात् विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयसेन, नागसेन, सिद्धार्थ, धृतिषण, विजय, बुद्धिलिंग, १. द्रष्टव्य-एस० एन० दासगुप्त : भारतीय दर्शन का इतिहास (भाग-१), जयपुर, १६७८, पृ० ६-७ २. 'बौद्ध' नैयायिक सांख्यं जैन वैशेषिक तथा। जैमिनीयं च नामानि दर्शनानाममून्यहो ।' षड्दर्शनसमुच्चय, का०३ ३. तुलनीय-आचार्यसम्राट् पूज्य श्री आनन्द ऋषि जी महाराज : स्याद्वाद साहित्य का विकास, पृ०६-१६ ४. महेन्द्रकुमार जैन : जैन दर्शन, काशी, १९६६, पृ० १४ मुखलाल संघवी : प्रमाणमीमांसा, अहमदाबाद, १९३६, प्रस्तावना-पृ० ३२ ५. कषायपाहुड, प्रकरण १८, पृ० २६ समवायांग, समवाय १३६ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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