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________________ जैन दर्शन मीमांसा सम्पादकीय दर्शनशास्त्र का उद्देश्य निम्नलिखित तीन प्रश्नों का अन्वेषण करना है१-मैं क्या जान सकता हूँ? २.-..-मुझे क्या करना चाहिए? ३-मैं किस भाग्य की आशा कर सकता हूं? पहले प्रश्न के साथ मिला हुआ यह प्रश्न भी है कि ज्ञान-प्राप्ति के साधन क्या हैं ? सत्य और असत्य में भेद करने की कसौटी क्या है ? उपर्युक्त तीन प्रश्नों में पहला प्रश्न बौद्धिक विवेचन का केन्द्रीय विषय है तथा दूसरा व्यावहारिक विवेचन में प्रमुख विषय है। सामान्यत: जीवन में ज्ञान और क्रिया संयुक्त मिलते हैं। पश्चिम में चिरकाल तक अन्तिम सत्ता को समझने का यत्न होता रहा । नवीन काल में विचारकों को ध्यान आया कि इस प्रश्न के पूर्व एक अन्य प्रश्न का पूछना आवश्यक है-हमारे ज्ञान की पहुंच कहां तक है ? यह जानकर ही हम निश्चय कर सकते हैं कि हमारी खोज के सफल होने की सम्भावना भी है या नहीं। भारत में ज्ञान-मीमांसा को सदा ध्यान में रखा गया है। भारतवर्ष में दर्शनशास्त्र की लोकप्रियता जितनी है, उतनी किसी भी अन्य देश में नहीं। पाश्चात्य देशों में दर्शनशास्त्र विद्वज्जनों के मनोविनोद का साधनमात्र है। जिस प्रकार अन्य विषयों के अध्ययन में वे मनमानी कल्पना किया करते हैं, उसी प्रकार इस महत्त्वपूर्ण विषय की भी स्थिति है। परन्तु भारतवर्ष में दर्शन तथा धर्म का, तत्त्वज्ञान तथा भारतीय जीवन का गहन सम्बन्ध है । त्रिविध ताप से सन्तप्त जनता की शान्ति के लिए, क्लेशमय संसार से आत्यन्तिक दु:खनिवृत्ति करने के लिए भारत में दर्शनशास्त्र का आविर्भाव हुआ। भारतीय दर्शन की धारा सुदूर वैदिक काल से अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित होती चली आ रही है। प्रारम्भिक अवस्थाओं में दार्शनिक विचारधाराओं की प्रणालियों का अधिकांश स्वरूप एक निश्चित दिशा को प्राप्त कर सुनिर्धारित हो चुका था, किन्तु वह उस स्वरूपहीन अवस्था में था कि उसका विभेदीकरण कठिन था; विभिन्न मतों की आलोचना-प्रत्यालोचना एवं विचार-संघर्ष के कारण इनका स्वरूप निरन्तर सुस्पष्ट एवं सुसमन्वित होता गया। भारत में वैदिक साहित्य से प्राचीन कोई साहित्य उपलब्ध नहीं है । अग्नि, वायु आदि प्रकृति के देवताओं की स्तुति में लिखे गए सूक्तों में कोई विशिष्ट दर्शन प्राप्त नहीं होता। लेकिन परवर्ती, ई० पू० १००० के लगभग लिखे गए, वैदिक वाङ्मय के कतिपय सूक्तों में दर्शनशास्त्र के कई ब्रह्माण्ड-विषयक रोचक प्रश्न प्राप्त होते हैं। उत्तर-वैदिककालीन ग्रन्थ ब्राह्मण एवं आरण्यक हैं। ये ग्रन्थ मुख्यतः गद्य में हैं। इनमें दो विशिष्ट धाराएं दृष्टिगोचर होती हैं। प्रथम, कर्मकाण्ड की चमत्कारात्मक विधि तथा द्वितीय, कल्पनात्मक ढंग पर कुछ विचारणीय तथ्यों का बहुत साधारणीकरण करते हुए चिन्तन के धरातल पर विचार-विमर्श करने की विधि । एतदनन्तर गद्य और पद्य में लिखे गए उपनिषद् संज्ञा से अभिहित दर्शन-ग्रन्थ प्राप्त होते हैं, जिनमें एकात्मवादी अथवा अद्वैतवादी विविधतापूर्ण दार्शनिक विवेचन पाया जाता है। साथ ही द्वंतवाद एवं बहुलवादी (अनेकेश्वरवादी) विचारधाराओं का उल्लेख भी पाया जाता है। सम्भवत: इस साहित्य का प्रारम्भिक भाग ईसा से ५०० वर्ष पूर्व से ७०० वर्ष पूर्व तक लिखा गया है। बौद्ध दर्शन बुद्ध के प्रादुर्भाव के साथ ईसा से ५०० वर्ष पूर्व प्रारम्भ हुआ। यह विश्वसनीय ढंग से कहा जा सकता है कि बौद्ध दर्शन १०वीं अथवा ११वीं शताब्दी तक किसी न किसी रूप में विकसित होता रहा । बुद्ध-काल और ईसामसीह से २०० वर्ष पूर्व के समय के मध्य अन्य भारतीय दार्शनिक विचारधाराओं का भी प्रादुर्भाव हुआ होगा। जैन दर्शन सम्भवतः बौद्ध धर्म से पहले उद्भूत हुआ। यद्यपि जैन धर्म में आन्तरिक सैद्धान्तिक मतभेद और अनेक पन्थ रहे हैं, फिर भी बौद्ध दर्शन की भांति जैन १. डॉ. दीवानचन्द : दर्शन संग्रह, पृ०३२ जैन दर्शन मीमांसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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