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विज्ञान के केन्द्र श्री जिन मन्दिरों के निर्माण एवं तीर्थ क्षेत्रों की संरचना एवं विकास में स्वयं कर्मरत हो जाते हैं। वास्तव में इस प्रकार का कर्म आचार्य थी की प्रवृत्तिमार्गी विचारधारा का प्रतिफल है। उनके कर्मप्रधान पौरुष से राष्ट्रीय एकता को बल मिला है और जैन धर्मानुयायियों में अभूतपूर्व आत्मविश्वास जागृत हुआ है। एक सन्त के रूप में साधना करते हुए चक्रवर्ती भरत के आत्मवैभव से गौरवमंडित होते हुए उन्होंने शताधिक महत्त्वपूर्ण धर्मग्रंथों का अनुवाद, प्रणयन एवं सम्पादन कर एक कीर्तिमान स्थापित किया है। एक श्रमणराज के रूप में प्राय: भारत के सभी प्रमुख खंडों में विचरण करते हुए उन्होंने विशाल मन्दिरों के निर्माण से आत्म साधना के केन्द्रों को विकसित करते हुए लोकोपकार के लिए धर्मशालाओं, औषधालयों, पुस्तकालयों, विद्यालयों इत्यादि का निर्माण कराकर जैन धर्म की उदार एवं लोकोपकारी चेतना को साकार रूप प्रदान किया है ।
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी का प्रेरणास्रोत चक्रवर्ती भरत का पावन चरित्र रहा है। इसीलिए उनका कथन है
हसिव तृषेयु निद्रे मोदलाद दु:खव । हसे गेडिसुव शक्तियुल्ल् ॥ असम वैभवने नन्नेदे योलगिरु मोक्ष । रसिक चिदंबर पुरुषा ||
अर्थात् भूख प्यास, निद्रा इत्यादि दुःखों का नाश करने की शक्ति को धारण करने वाले असीम पुण्य वैभवशाली मोक्ष रसिक, हे पुरुष, सिद्ध परमात्मन् ! मेरे हृदय में हमेशा रहकर मेरी रक्षा करो !
चिदंबर
ग्रन्थ के समापन पर आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज भव्य जीवों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे भव्य जीवो ! यदि आप लोग शरीर व आत्मा को अभेद जानकर परमात्मा का चिंतन करते रहोगे तो आप लोग भी भरत जी के समान इस लोक व परलोक के सुख को भोगकर अन्त में मोक्ष की प्राप्ति कर सकोगे ।
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आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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