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________________ इसी प्रकार हे राजन् समस्त राज-योग को सम्हालते हुए भी आपकी मुख की दृष्टि मोक्ष मार्ग की ओर है। सम्राट् भरत की दृष्टि धर्मशासन की स्थापना के साथ-साथ मोक्षसुख की आकांक्षा की ओर भी केन्द्रित थी। उसकी साधना इतने उत्कर्ष पर पहुंच गई थी कि राजा भरत एवं योगी भरत में भेद करना भी जनसामान्य के लिए कठिन था घरियोलेल्लव सटुरुंटल्लि भस्म क । पुर्र व सुट्टरे भस्म बुटे॥ नरतति गाहारनिहारबंटेम्म । भरतेशगिल्ल निहारा॥ अर्थात् जैसे संसार में सभी पदार्थ जलाने से उसका भस्म तैयार होता है, परन्तु कपूर जलाने से कभी उसका भस्म तैयार होता है ? उसी प्रकार सभी मनुष्यों को आहार और निहार प्रायः दोनों ही देखने में आते हैं। परन्तु राजा भरत में आहार तो है लेकिन निहार नहीं है। क्या यह अलौकिक व्यक्ति नहीं है। इसी आदर्श स्थिति के कारण चक्रवर्ती भरत का आत्मतेज इस देश के कण-कण में व्याप्त हो गया है। सम्राट् भरत की वैराग्यजन्य आत्मसाधना इतनी प्रखर हो गई थी कि महाकवि रत्नाकर वर्णी भावविह्वल होकर कह उठे-- मुरिदु कण्णिरे क्षणके मुक्तिय कांब । भरत चक्रिय हैललवने। अर्थात् वह क्षणमात्र में दृष्टि बन्द कर मोक्ष को प्राप्त करने वाले उन चक्रवर्ती भरत का मैं क्या वर्णन करूं । मोक्षमार्ग के अद्भुत प्रेरक सिद्ध पुरुष श्रीभरत के पावन कथानक का गौरव गान करने में सरस्वती भी अपने को असमर्थ-सा मानती है । इसीलिए आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाकवि रत्नाकर वर्णी की मनःस्थिति के समान ही कह उठते हैं हदिनारनेमन प्रथम चक्रेश्वर । सुदति जनके राजमदन ॥ चदुरर तलेवणि तद्भवमोक्षास । पवन वाणिस लैन्न हवणे॥ अर्थात् सोलहवें मनु, प्रथम चक्रवर्ती, अन्तःपुरवासिनियों के लिए कामदेव, विवेकियों के चूड़ामणि एवम् तद्भव मोक्षगामी भरत का वर्णन करने में मैं कहां तक समर्थ हो सकता हूं। आत्मसाधना में प्रवृत्त आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज ने भोगविजय, दिग्विजय, योगविजय, मोक्षविजय एवं अर्ककीतिविजय नामक पांच कल्याणों में विभक्त, चौरासी संधियों और चौरासी प्रकरणों में गुम्फित एवं दस हजार से भी अधिक पद्यों वाली इस रचना को अपनी काव्यसाधना का विषय क्यों बनाया? इसका उत्तर आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी द्वारा ग्रन्थ के प्रारंभ में किए गए मंगलाचरण से स्वयं मिल जाता है : भरतभूप का यह यशोगान । यह है तद्भव मोक्ष जान । कटे कर्मभव भव के महान् । आदिपुत्र सम मिले आत्मज्ञान ।। मिल जाए मुक्ति पद मन में ठान । करूँ आरम्भ कथा सुन लगा ध्यान । यह है भरतेशवैभव महान् । भविजन को तारण तरणहि जान ॥" यह सत्य है कि इस काव्य के प्रतिपाद्य विषय भोगों से मुक्ति की तरफ ले जाने वाले हैं और पापकर्मों को नष्ट कर सनातन सुख की अनुभूति कराने वाले हैं । इस सनातन सुख से साक्षात्कार करने के लिए ही आचार्य रत्न जी ने दिगम्बर परिवेश ग्रहण किया है और एक लम्बे कालखंड से वह दिगम्बर सन्त के रूप में आत्मानुसंधान में निरन्तर संलग्न हैं। प्राय: जैन धर्म से सम्बन्धित साधु-समाज पर यह आरोप लगाया जाता है कि वह वैराग्यमूलक निवृत्तिप्रधान धर्म का पालन करते हुए संसार से सर्वथा विरक्त रहते हैं । भरतेश वैभव का कथासार मनुष्य में ब्रह्मविद्या की रुचि तो उत्पन्न करता है किन्तु वह पलायनवादी दृष्टिकोण से सर्वथा दूर है। आचार्य श्री मानव समाज को अपने ज्ञानानुभव द्वारा पिछली पाँच दशााब्दियों से आस्था एवं रचना का उपदेश देते रहे हैं। जैन धर्म के आचार ग्रंथों में इस तथ्य पर बल दिया गया है कि साधु को श्रावक से भेंटवार्ता करते हुए सर्वप्रथम श्रावक को मुनि बनने की प्रेरणा एवं आशीर्वाद देना चाहिए। आचार्य श्री देशभूषण जी का दिव्य व्यक्तित्व श्रावक समाज को धर्म पर चलने की प्रेरणा देता है। एक दिगम्बर सन्त के रूप में कठोर तपश्चर्या करते हुए भी वह अपने सामाजिक दायित्व से मुक्त होने के लिए निरन्तर कर्मशील रहते हैं। उनके गौरवशाली चरित्र में निवृत्ति एवं प्रवृत्ति का मणिकांचन-संयोग है। इन्द्रियों को संयमित करने के लिए वह कठोर तप के साथ-साथ अद्भुत व्रतविधान भी करते रहे हैं। कोल्हापुर के प्रारंभिक चातुर्मासों में उन्होंने सर्वतोभद्रव्रत, महासर्वतोभद्र व्रत, बसन्तभद्रव्रत, त्रिलोकसार-व्रत, ब्रजमध्य विधि व्रत, मृदंगमध्यविधि व्रत, मुरजमध्य-विधि व्रत, मुक्तावली-व्रत एवं रत्नावली-व्रत का विधान करते हुए ६०४ दिनों में ४७१ उपवासों को करते हुए १३३ पारणाएं की थीं । साधना काल एवं उपवासों में भी वह निरंतर कर्मरत रहते हैं । मूलाचार में साधु के लिए नियत नियमावली का पालन करते हुए वह शास्त्राभ्यास में संलग्न रहते हैं। कठोर नियमावली का पालन करते हुए भी उनके मन में सन्त हृदय की कोमलता एवं करुणा प्रायः साकार हो उठती है। अत: श्रावक समाज के उद्धार एवं धर्म के उन्नयन की भावना से वह साहित्य के प्रणयन वीतराग सृजन-संकल्प २६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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