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वाले भौंड़े प्रदर्शन एवं फिजूलखर्ची पर उन्होंने तीखा प्रहार किया है।
आचार्य श्री भारतीय वाङमय के गंभीर अध्येता हैं । जैन धर्म एवं विश्व के अन्य प्रमुख धर्म-ग्रंथों का उन्होंने विशद अध्ययन किया है। उन्होंने अपना समस्त जीवन धर्माचरण में लगा दिया है। अत: उनके उपदेशों में सभी धर्मों का सार स्वयमेव आ जाता है। आचार्य श्री का उपदेशात्मक साहित्य प्रवचन मात्र न होकर धर्म का सार हैं। वास्तव में उनके द्वारा दिया गया उपदेश और उपदेशात्मक साहित्य अनेक धर्म ग्रन्थों का नवनीत है। इसका स्वाध्याय कर आज की वर्तमान पीढ़ी और भावी पीढ़ी आत्मकल्याण में सफल होगी, ऐसा हमारा विश्वास है।
आचार्य श्री अपने उपदेशों में भारतीय एवं विश्व इतिहास की अनेक प्रेरक एवं रोचक घटनाओं का बहुलता से उल्लेख करते हैं। साथ ही, दैनिक समाचार पत्रों में प्रकाशित होने वाली घटनाओं का विवरण भी उनके उपदेशों में प्रचुर होता है। चीन के राजवंश, रूस के जार, जर्मनी के कैसर की अन्यायपूर्वक हस्तगत की हुई राज्य सम्पत्ति के दुष्परिणामों का उल्लेख उन्होंने अनेकत्र किया है। भारत-विभाजन एवं उससे उत्पन्न मानवीय पीड़ा का करुण दृश्य भी उनके उपदेशों में मिलता है।
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज के पास अनुभूतियों का भण्डार है। पदयात्राओं के सन्दर्भ में उन्हें अनायास ही भारतीय समाज का अध्ययन करने का अवसर मिल जाता है। स्थान-स्थान पर अनेक व्यक्ति उनसे धर्म संबंधी विषयों पर मार्गदर्शन लेने आते हैं। तत्त्वचर्चा प्रेमी अपनी जिज्ञासाओं के समाधान के लिए उनके आगे प्रश्नों की बौछार कर देते हैं। समाज के अनेक रंगों से वे परिचित हैं। सभ्य परिवेश की आड़ में पापमय आचरण के प्रसंगों की सत्य कथाओं को उन्होंने सुना है। चम्बल के बीहड़ों में दस्युओं के प्रायश्चित्त भाव के आप साक्षी रहे हैं । इसी प्रकार की अनेक घटनाओं ने उनको जीवन-दृष्टि प्रदान की है। अनुभूत सत्यों से प्रेरित होकर उन्होंने मानवता का मार्गदर्शन करने के लिए भगवान् महावीर और मानवता का विकास, ढाई हजार वर्षों में भगवान महावीर स्वामी की विश्व को देन, अहिंसा और अनेकान्त, नर से नारायण, मानव जीवन, गुरु शिष्य प्रश्नोत्तरी इत्यादि पुस्तकों का प्रणयन किया है । ये सभी पुस्तकें सरल एवं रोचक शैली में हैं। कहीं-कहीं ऐसा लगता है कि आचार्य श्री पाठक से बातचीत कर रहे हैं। - भारतीय महिला समाज से महाराज श्री को अत्यधिक अपेक्षाएँ हैं। बालकों के पालन-पोषण में माताओं के उपेक्षा भाव को देखकर वे दुःखी हो जाते हैं। ऐसे में वह परिवार के एक वयोवृद्ध सदस्य के रूप में बालकों के जन्म लेते ही धाय एवं विलायती डिब्बे का दूध न पिलाने का परामर्श देते हैं । उनकी मान्यता है कि अच्छी माताएँ ही राष्ट्र के निर्माण में सहयोग दे सकती हैं। राष्ट्र में प्रचलित बुराइयों के उन्मूलन में वे नारी-जाति का सहयोग चाहते हैं। आचार्य श्री के शब्दों में--"जब हमारी माताओं को नए-नए कपड़े बनाने, फैशन निकालने, बेटा-बेटी के ब्याह में जनखे नचाने से ही अवकाश नहीं मिलता तब हमारी कमर में युद्ध के समय प्रस्तुत होने के लिए तलवार बांधने को स्वर्ग से देवता थोड़े ही आयेंगे। आज हिन्दु ललनाओं को जनखे नचाने और नए-नए फैशन निकालने का शौक चर्राया है तो कल उन्हीं की सन्तान नाटकों में पार्ट करके बाजार में तबले बजा कर अपना जीवन समाप्त कर देगी। जो देश अथवा समाज विलासिता में फंस जाता है वह क्या कभी अपना स्वत्व रख सकता है ?" (ढाई हजार वर्षों में भगवान् महावीर स्वामी की विश्व को देन, पृष्ठ ३५)
आचार्य श्री अपने मन्तव्य को प्रभावी बनाने के लिए विचारोत्तेजक ऐतिहासिक प्रमाण भी पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत कर देते हैं। विलासिता मनुष्य को कितना कायर बना देती है, इसका उदाहरण देने के लिए आचार्य श्री ने 'ढाई हजार वर्षों में भगवान महावीर स्वामी की विश्व को देन' में कहा है
"मोहम्मद शाह रंगीले का समय था। दिल्ली विलासिता के रंग में डूबी हुई थी। छोटे-बड़े, अमीर-गरीब सभी विलासिता में डूबे हुए थे। कोई नृत्य और गान की मजलिस सजाता था, तो कोई अफीम की पीनक ही में मजे लेता था। जीवन के प्रत्येक विभाग में आमोद-प्रमोद का प्राधान्य था। शासन विभाग में, साहित्य क्षेत्र में, सामाजिक व्यवस्था में, कलाकौशल में, उद्योग-धन्धों में, आहार-व्यवहार में सर्वत्र विलासिता व्याप रही थी। राज्य कर्मचारी विषयवासना में, कविगण प्रेम और विरह के वर्णन में, कारीगर कलाबत्तू और चिकन बनाने में, व्यवसायी सुरमे, इत्र, मिस्सी और उबटन करने के रोजगार में लिप्त थे। सभी की आंखों में विलासिता का मद छाया हुआ था। संसार में क्या हो रहा है इसकी किसी को खबर न थी। बटेर लड़ रहे हैं । तीतरों की लड़ाई के लिये पाली बदी जा रही हैं। कहीं चौसर बिछी हुई है। ऐसे समय में लाहौर के शासक का खरीता देहली दरबार में पहुंचा। जिस समय उसमें नादिरशाह की चढ़ाई का हाल पढ़ा गया, उस समय मोहम्मदशाह के दरबार में शराब का दौर चल रहा था, मद्य को पीकर शाह से लेकर दरबारी तक मदमत्त थे। खरीता सुनकर एक दरबारी ने हँसकर कहा था "अजी हजूर असल बात यूँ है कि लाहौर वालों के मकान बहुत ऊंचे हैं, इसी से उन्हें बड़ी दूर की सूझती है। न कोई नादिरशाह है न उसकी इतनी हिम्मत ही है कि वह हजूर जैसे शाह का सामना कर सके।" उस समय इस दरबारी की बात का सबने अनुमोदन किया और शाह की
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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