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________________ रूप से स्मरण किए जाते हैं। पदयात्राओं के समय उनके सम्पर्क में आने वाले धर्मप्रेमियों की जिज्ञासाओं एवं कुतूहल को शान्त करने के लिए उन्हें उपदेशात्मक शैली का आश्रय लेना पड़ता है। उन्होंने अपनी ५१ वर्षीय मुनिचर्या में कितनी धर्मसभाओं को सम्बोधित किया, उनके सम्पर्क में कौन-कौन आया, उनके उपदेशामृत से कितने नाव व्यक्ति अनुगृहीत हुए, आदि प्रश्नों का उत्तर देना कठिन है, किन्तु उनकी जीवन-सारिणी का विश्लेषण करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि उन्होंने अब तक १० हजार से अधिक धर्मसभाओं को अवश्य सम्बोधित किया है और उनके सम्पर्क क्षेत्र में कई करोड़ श्रावक आए हैं। उनके प्रवचनों में शासन के सूत्रधारों से लेकर मिट्टी की उर्वरा शक्ति एवं कल-कारखानों को नया जीवन देने वाले कृषक एवं मजदूर आदि समान रूप में सम्मिलित होते हैं। इसीलिए आचार्य श्री धर्म के स्वरूप एवं अपनी आन्तरिक अनुभूतियों को जनसभाओं में लोक-कल्याण के लिए व्यक्त कर देते हैं। उनकी पावन वाणी को सर्वसुलभ एवं कालजयी रूप देने की भावना से धर्मशील श्रावक-श्राविकाओं ने उनके उपदेशों को उपदेशसार के रूप में प्रकाशित कराया है। जैन धर्म की शास्त्रीय मर्यादाओं के अन्तर्गत दिगम्बर मुनि वर्षाकाल में किसी निश्चित स्थान पर चातुर्मास करते हैं। इस प्रकार के प्रवास काल में धर्मसभाओं का विशेष रूप से आयोजन होता है। श्रद्धा से भाव-विभोर होकर श्रावक-श्राविकाएँ उनके उपदेशों को साधनों की सुलभता के अनुसार पुस्तकाकार रूप दे देते हैं । आचार्य श्री के निरन्तर विचरण के कारण उनका उपदेशात्मक साहित्य एक स्थान पर उपलब्ध नहीं हो पाता। यहां हम उनके जयपुर, दिल्ली, कलकत्ता एवं कोथली में हुए उपदेशात्मक साहित्य का ही विश्लेषण कर रहे हैं। आचार्य श्री के प्रवचनों का विश्लेषण करने के उपरान्त यह निष्कर्ष निकलता है कि वे मनुष्य भव को मुक्ति का द्वार मानते हैं और इसीलिए संसारी प्राणियों के कल्याण के निमित्त वे आवश्यक मार्ग-दर्शन करते हुए जीवन के प्रत्येक क्षण का सार्थक उपयोग करने का परामर्श देते हैं । महानगरी दिल्ली में सर्वप्रथम मंगल प्रवेश के अवसर पर विशाल जनसभा को सम्बोधित करते हुए उन्होंने अपनी मान्यता को इस प्रकार प्रस्तुत किया है- "मनुष्य भव की सफलता तो उस धर्म आराधन से है जो कि देव पर्याय में भी नहीं मिलता और जिससे आत्मा का उत्थान होता है। आत्मध्यान द्वारा अनादि परम्परा से चली आई कर्म बेड़ी को तोड़कर मनुष्य सदा के लिए पूर्ण स्वतंत्र पूर्णमुक्त भी हो सकता है। तब दुर्लभ नर-जन्म पाकर मनुष्य जीवन के अमूल्य क्षणों में से एक भी क्षण व्यर्थ नहीं खोना चाहिए।" ( उपदेशसार संग्रह, भाग १. १०२) उपदेशों के प्रतिपाद्य विषय को प्रामाणिक एवं विज्ञान सम्मत बनाने के लिए आचार्य श्री अनेक रोचक संवादों का आश्रय लेते हैं। वृक्षों में आत्मा को सिद्ध करने के लिए उन्होंने कलकत्ता के ईडन बाग़ में हुए डा० जगदीशचन्द्र बोस एवं पं० पन्नालाल जी बाकलीवाल के वार्तालाप को प्रस्तुत किया है । इस प्रकार के संवादों से जैन-धर्म के सिद्धान्तों के प्रति निष्ठा जागृत करने में वे सफल हुए हैं। इसी प्रकार विषय को प्रभावक एवं वेगमान बनाने के लिए ये प्रायः अंग्रेजी, उर्दू, हिन्दी, संस्कृत के मुहावरों व सूक्तियों का प्रयोग करते हैं। समय को अमूल्य सम्पत्ति बताते हुए उन्होंने Time is the money का प्रयोग किया है। घड़ी की सुई से निकलने वाली टिक-टिक ध्वनि के द्वारा उन्होंने कार्य को शीघ्र ही करने का उपदेश दिया है। प्रयुक्त भाव को प्रभावशाली बनाने के लिए वे प्रायः अंग्रेजी कविताओं के रोचक अंश प्रस्तुत करते हैं । उपदेशसार प्रथम भाग में अंग्रेजी कविता का अंश इस प्रकार है "Tick the clock says tick tick tick what you have to do, do quick" आचार्य श्री एक आदर्श धर्मसाधक हैं। उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपना सारा समय आत्मकल्याण के लिए ही केन्द्रित करेंगे । वे अपनी महान् साधना में से समय निकालकर जन-समुदाय का मार्ग-दर्शन क्यों करते हैं ? इसका सटीक उत्तर आचार्य श्री ने अपने प्रवचनों में इस प्रकार दिया है- "वीर शासन को व्यापक बनाने के लिए हमारा प्रथम कर्तव्य अपने सामाजिक संगठन को दृढ़ बनाना है। गृहस्थ वर्ग की भाँति व्रती त्यागी लोगों का संगठन भी वीरवाणी के प्रचार के लिए अत्यावश्यक है।” (उपदेशसार संग्रह, भाग १, पृ० १२६ ) जैन धर्म में सफल आचार्य को चतुविध संघ का पालन करना होता है । अतः मुनि, आर्यिका श्रावक-श्राविका सभी को समीचीन धर्मोपदेश देना उनके पद की मर्यादा के अन्तर्गत आता है। आज समाज का रूप अत्यन्त भयावह हो गया है। धर्म एवं लोक की मर्यादाओं को तोड़कर सद्गृहस्थों ने भी भौतिक सम्पन्नता के लिए ग़लत मार्ग को अपना लिया है। आचार्य श्री अपने धर्मप्रवचनों में समाज में व्याप्त कुरीतियों पर गहरा प्रहार करते हैं। दहेज, रात्रि भोजन, मद्य-मांस से उत्पन्न होने वाली बुराइयों, चल-चित्रों का कुत्सित रूप, विवाह में होने सृजन-संकल्प ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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