SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 420
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आजकल राष्ट्र में मिलावट-विरोधी अभियान चलाये जा रहे हैं। संभव है, इससे वस्तुएँ शुद्ध मिलने लगें। किन्तु शुद्ध धर्म में जो अधर्म मिलकर धर्म के नाम पर चल रहे हैं, यदि इनके विशुद्धीकरण का ही अभियान चलाया जाय तो यह असंभव नहीं कि विश्व-मानस की रुचि अधर्म को अधर्म और शुद्ध धर्म को ही धर्म न मानने लगे। ऐसे अभियान की आज बहुत आवश्यकता है। जिन व्यक्तियों ने भी धर्म में मिलावट की है, उन्होंने भले ही अपनी आकांक्षाओं की पूत्ति कर ली हो, किन्तु संसार का उन्होंने कोई उपकार नहीं किया, बल्कि अधर्म फैलाकर उन्होंने संसार के करोड़ों व्यक्तियों को सन्मार्ग से भ्रष्ट करने का अपराध किया है। उनका यह अपराध सारी मानवता के प्रति है। यंत्र-तंत्र-मंत्र से यदि आपत्तियों का निवारण हो जाता तो रामचन्द्र, पाण्डव राजपाट छोड़कर जंगल में क्यों घूमते ? उनकी पत्नी का अपमान क्यों होता? यंत्र-मंत्र-तंत्र आदि विद्याओं ने इनको क्यों नहीं बचाया? इनको इतना कष्ट क्यों उठाना पड़ा? क्या वे लोग नहीं जानते थे कि यंत्र-मंत्र-तंत्र आपत्तियों का नाश कर सकते हैं। वस्तुतः अशुभ कर्म का उदय होने पर आपत्तियों का आना अनिवार्य है । पुण्य के उदय होने पर ही मंत्र-वैद्य आदि सहायक हो सकते हैं । जीव कितना ही प्रयत्न करे किन्तु पूर्वजन्म के पुण्य के बिना वह सफल नहीं होता। चम्पा-चमेली के फूलों को पानी में डालने से पानी सुगंधित होता है और नीम के फूलों को पानी में डालने से पानी कड़वा होता है । इसी तरह मनुष्य जाति में भी गुण-स्वभाव की भिन्नता होने पर उनके परिणामों के फल भी भिन्न-भिन्न होते हैं । बिना परीक्षा किये दीक्षा देने वाला तथा बिना इच्छा के बलात् दीक्षा देने वाला गुरु अयोग्य है क्योंकि यदि वह पीछे शिथिलाचारी हो जाय अथवा अपने गुरु के प्रतिकूल हो जाय तो ऐसे गुरु और शिष्य दोनों संसार में परिभ्रमण करते हैं। Dदीक्षा लेने के बाद अपने कुल की महिमा, जाति, ऐश्वर्य, गाँव, वैभव, अपनी स्त्री की महिमा का स्मरण करने वाला. तथा उसकी प्रशंसा करने वाला मुनि नहीं है, दुर्जन है। जितने जिनालय हैं, दिव्य तपोधन हैं, श्रावक हैं, उन सबको समान भाव से देखने वाला ही श्रेष्ठ मुनि है । अपने मन में राग-द्वेष उत्पन्न न हो, ऐसी तपस्या करने वाला ही तपस्वी कहलाता है । मन में राग-द्वेष रखकर तपस्या करने वाला मुनि कषाय दग्ध होता है। उसके लिए कषाय ही तप है। जिन्होंने सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग कर दिया, यदि उसके कषाय-परिग्रह हैं तो निर्ग्रन्थ नहीं है, वह सग्रन्थ है । यदि सग्रन्थ होते हुए भी कषाय-परिग्रह नहीं है तो वह उपचार से निर्ग्रन्थ कहलाता है । 0 जैनधर्म सम्पूर्ण जीवों का हित करने वाला है, पाप को हटाने वाला है, संसाररूपी बड़वानल को शान्त करने वाला है। सुव्रत का भण्डार है, सम्पूर्ण गुणों से परिपूर्ण है । यह जैनधर्म ही उत्तम कुल, उत्तम जाति, उत्तम माता-पिता, बहन-भाई, मित्र, स्त्री, पुत्र आदि अनेक प्रकार की सम्पत्ति तथा इन्द्रियजन्य सुख को देने में जैसा समर्थ है, वैसा अन्य कोई धर्म समर्थ नहीं है। यह सम्पूर्ण प्राणियों को सुख-शान्ति के लिए जननी के समान है। बिना परमागम के जाने धर्म का ज्ञान नहीं होता । जैनधर्म का मर्म समझ में आ जाता है, तब अक्षय सुख प्राप्त करने की सामग्री प्राप्त हो जाती है और मोक्ष-सुख का साधन मिल जाता है। इसलिए आगम का मनन करना चाहिए, धर्म-अधर्म का ज्ञान करना चाहिए और परमागम का अभ्यास करना चाहिए। D मुर्गी को कितना ही अच्छा भोजन दिया जाय किन्तु वह कूड़े-कचरे को ही कुरेद कर खाती है। इसी प्रकार धूर्त कितने ही माया वेश धारण कर लें, उन्हें कितना भारी भी सम्मान क्यों न प्राप्त हो जाये किन्तु वे अपनी आदत नहीं छोड़ते । 0 प्रारम्भ में प्रथमानुयोग को श्रद्धानपूर्वक न पढ़कर और उसका मनन न करके जो द्रव्यानुयोग के पठन की इच्छा करते हैं और उसका मनन करके उसके फल की इच्छा करते हैं वे आम का पौधा लगाकर उसमें पानी न देकर फल की इच्छा करते हैं। मूर्ख लोग तीनों अनुयोगों का क्रमिक अध्ययन न करके केवल द्रव्यानुयोग को पढ़कर मोक्ष की इच्छा करते हैं। ऐसे मूर्ख हाथ के बिना भी सोने का कंकण पहनना चाहते हैं। 0 जिन्हें सुख की इच्छा हो, उनको जिनेन्द्र भगवान् का अर्चन-पूजन और स्मरण दिन-रात करना चाहिए । जो जिनेन्द्र देव भी मनोभावपूर्वक पूजा करता है, वह देवेन्द्र पद का सुख, विद्याधरों का राज-सुख एवं चक्रवर्ती का साम्राज्य प्राप्त करता है। किन्तु जो दूसरों की सम्पत्ति को देखकर ईर्ष्या करता है, उसे कभी सुख नहीं मिल सकता। 0 धर्म का मार्ग समझे बिना पाप-मार्ग का अवलम्बन करके इहलोक और परलोक के सुख की इच्छा करने वाले मूर्ख हैं। जैसे कोई ज्वार बोकर धान की इच्छा करता हो या नीम बोकर आम की इच्छा करता हो, अथवा भैस के बजाय भैसे से दूध की इच्छा करे, उसी प्रकार सधर्म को छोड़कर पाप कर्म करके सुख चाहने वाला निर्बुद्धि है। ११० आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy