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है अन्यथा ग्राह्य नहीं है । और इसलिए प्राचीन अर्वाचीन से समीचीन का महत्त्व अधिक है, वह प्रतिपाद्य धर्म का असाधारण विशेषण है, उसकी मौजूदगी में ही अन्य दो विशेषण अपना कार्य भली प्रकार से करने में समर्थ हो सकते हैं। अर्थात् धर्म के समीचीन ( यथार्थ ) होने पर ही उसके द्वारा कर्मों का नाश और जीवात्मा को संसार के दुःखों से निकाल कर उत्तम सुख में धारण करना बन सकता हैअन्यथा नहीं । इसी से समीचीनता का ग्राहक प्राचीन और अर्वाचीन दोनों प्रकार के धर्मों को अपना विषय बनाता है अर्थात् प्राचीनअर्वाचीन का मोह छोड़कर उनमें जो भी यथार्थ होता है उसे ही अपनाता है।
जैन धर्म के अनुसार जगत् में प्रत्येक प्राणी अव्यक्त परमात्मा है । हर आत्मा अपने सहज स्वरूप को जानने के बाद
परमात्मा बन सकता है ।
जुआ खेलना, मांस भक्षण करना, मद्यपान करना, वेश्या सेवन करना, शिकार खेलना, चोरी करना, पर स्त्री सेवन ये सप्त व्यसन संसार परिभ्रमण के कारण, रोग, क्लेश, बंध बंधनादि के कराने वाले, पाप के बीज, मोक्ष मार्ग में विघ्न करने वाले, सर्व अवगुणों के मूल, अन्याय की मूर्ति तथा लोक-परलोक बिगाड़ने वाले हैं । जो सप्त व्यसनों में रत होता है उसके विशुद्ध लब्धि अर्थात् सम्यक्त्व धारण होने योग्य पवित्र परिणामों का होना सम्भव नहीं, क्योंकि उसके परिणामों में अन्याय से अरुचि नहीं होती । ऐसी दशा में शुभ कार्यों से तथा पवित्र धर्म से रुचि कैसे हो सकती है ? इसलिए प्रत्येक स्त्री-पुरुष को इन सप्त व्यसनों को सर्वथा तज कर शुभ कार्यों में रुचि रखते हुए नियमपूर्वक सम्यक्श्रद्धानी बनना चाहिये और गृहस्थधर्म के उपयुक्त अष्टमूलगुण धारण करने चाहिए ।
D सम्यक दर्शन के समान न तो कोई धर्म है, न होगा। यह सम्यक्त्व ही कल्याण का साधक है । पर मिथ्यात्व के समान तीनों लोकों में दूसरा पाप नहीं है । अतएव यह मिथ्यात्व ही सारे अनर्थों की जड़ है । उस सम्यक्त्व की प्राप्ति जीवादि सप्त तत्त्वों के बद्धान से तथा सर्वशदेव सद्ग्रंथ और निग्रंथ गुरुओं के श्रद्धान से होती है, जिसकी प्राप्ति से ही ज्ञान चारित्र को सत्य कहा जा सकता है ।
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D संसार के आयु, लक्ष्मी-भोग आदि इन्द्रियजन्य सुख विद्युत के समान क्षणभंगुर और विनश्वर हैं, अतएव भव्य जनों को सदा मोवा का ही सेवन करना चाहिए। संसार में जीव को मृत्यु-रोग-कलेश आदि दुःखों से रक्षा करने वाला और कोई दूसरा मार्ग नहीं है । धर्म ही एक शरण है । दुःखादिकों के निवारण के लिए सदा उसका पालन करते रहना चाहिए। संसार-सागर दुःखों का आगार है, उसके पार होने के निमित्त रत्नत्रय का सेवन करना बड़ा ही आवश्यक है । जीव को यह समझ लेना चाहिए कि मैं अकेला हूं, यदि कोई मेरा सहायक हो सकता है तो वे भगवान् जिनेन्द्र देव हैं। इस प्रकार शरीर से अपने को भिन्न समझ कर आत्म-ध्यान में शरीर की ममता से मुक्त हो, संलग्न हो जाना चाहिए। यह शरीर सप्तधातुमयी निन्दित है, दुर्गन्धि का घर है, ऐसा समझकर बुद्धिमान लोग धर्म का ही आचरण करते हैं ।
वस्तुतः वे बड़े ही मूर्ख हैं जो थोड़ी आयु पाकर तपस्या के बिना अपने अमूल्य समय को नष्ट कर देते हैं। वे यहां भी दुःख भोगते हैं और नरकादि की यातनायें भी । मैं ज्ञानी होते हुए संयम के अभाव में एक अज्ञानी की भांति भटक रहा हूं । अब गृहस्थाश्रम में रहकर समय व्यतीत करना उपयुक्त नहीं कहा जा सकता। वे तीनों ज्ञान ही किस काम के, जिनके द्वारा आत्मा को और कर्मों को अलग-अलग न किया जाय तथा मोक्षरूपी लक्ष्मी की उपासना न की जाय। ज्ञान प्राप्त करने का उत्तम फल उन्हीं महापुरुषों को प्राप्त है, जो निष्पाप तप का आचरण करते हैं।
D उस व्यक्ति के नेत्र निष्फल हैं जो नेत्र होते हुए भी अन्धकूप में गिरता है, वही दशा ज्ञानी पुरुषों की है जो ज्ञान होते हुए भी मोहरूपी कूप में बंधे रहते हैं । वस्तुतः अज्ञान (अनजान ) में किए हुए पाप से ज्ञान प्राप्त होने पर छुटकारा भी मिल जाता है, ज्ञानी ( जानकार) का पाप से मुक्त होना दुष्कर होता है । अतएव ज्ञानी पुरुषों को मोहादिक निन्दनीय कर्मों के द्वारा किसी प्रकार का पाप नहीं करना चाहिये । इसका कारण यह है कि मोह से राग-द्वेष उत्पन्न होता है । उस पाप के फलस्वरूप जीव को बहुत दिनों तक दुर्गतियों में भटकना पड़ता है । वह भटकना भी साधारण नहीं अनन्त काल तक का, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता ।
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संसार में जितनी भी दुष्प्राप्य वस्तुएं हैं वे सब धर्म के प्रसाद से अनायास प्राप्त होती हैं। धर्म ही माता-पिता तथा - साथ-साथ चलने वाला, हित करने वाला है । वह कल्पवृक्ष, चिन्तामणि और रत्नों का खजाना है । वे पुरुष इस संसार में धन्य हैं जो प्रमाद का परित्याग कर धर्म का पालन करते हैं। उन्हीं की संसार में पूजा होती है । किन्तु जो पुरुष धर्म के अभाव में समय व्यतीत करते हैं, वे पशु के सदृश हैं ।। ऐसा समझकर बुद्धिमान धर्म के बिना एक क्षण का समय भी व्यर्थ न जाने दें ।
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आचार्यरश्न भी देशभूषण जी महाराज अभिनन्दनाथ
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