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________________ घोड़े आदि की परीक्षा करना सीखना यह भी एक बाह्य कला है। आत्मा सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र 'रत्न त्रय' स्वरूप है। अतः उन रत्नों की परीक्षा कर पहिचानना बड़ा कठिन कार्य है। इसे ही अन्तरंग विज्ञान कहते हैं । इसको जानने से आत्म-कल्याण होता है। क्या दग्ध बीज बोया हुआ कहीं उगने में समर्थ हो सकता है ? कभी नहीं। क्योंकि उसकी अंकुरोत्पत्ति की शक्ति नष्ट हो चुकी है। उसी प्रकार कर्मबन्ध रूपी अंकुर के लिए बीज रूपी राग को यदि पहले ही नष्ट कर दिया जाय तो फिर क्या उसकी उत्पत्ति आगे हो सकती है ? अर्थात् नहीं। निष्काम भोगी आत्मज्ञानी को किसी भी वस्तु में राग नहीं रहता, इसलिए विकारमय संसार में रहते हुए भी उस पर विकारों का प्रभाव नहीं होता। 0 यह शरीर 'जिन' मन्दिर है । मन उसका सिंहासन है। निर्मल आत्मा 'जिन' भगवान् हैं । बाहर के सभी विकल्प छोड़ कर, आँख बन्द कर इस प्रकार अपने अन्दर देखें तो सचमुच ही 'जिन' अपने में ही प्राप्त होंगे अर्थात् अपने ही भीतर दर्शन देंगे। जैसे कोई विद्यार्थी अभ्यास के पाठ को भूल गया हो और अध्यापक के पूछने पर अपनी भूल पर दत्तचित्त होकर विचार करता है, उसी प्रकार ज्ञान दर्शन भी मेरा रूप है ऐसा समझकर एकाग्रता से शरीर के अन्दर (आत्मा में) चित्त लगा से आत्मा का दर्शन होता है। 0 इस लोक में थल में, जल में अथवा पृथ्वी पर गमन करना सरल है परन्तु बिना आधार के क्या कोई आकाश में भी चल सकता है ? नहीं । इसी प्रकार बाह्य वस्तु का तो सभी वर्णन कर सकते हैं परन्तु आध्यात्मिक विषय का वर्णन करना उन लोगों के लिए कभी शक्य नहीं हो सकता। 0 शास्त्र के मर्म को न समझकर केवल वस्त्रत्याग करने वाले मुनि, मुनि नहीं हैं । वस्त्र के समान ही तीनों लोक एवं शरीर भी परिग्रह हैं । ऐसा समझकर केवल आत्मा में ही तृप्त होने वाले योगी योनी हैं। ० राजा भरत की क्या प्रशंसा की जाय? भोजन करते हुए भी वे उपवासी हैं और भोग भोगते हुए भी ब्रह्मचारी हैं। हाथ में भू-मण्डल होने पर भी निष्परिग्रही हैं । सिर में बालों की वृद्धि होने पर भी उनका मन मुंडित है। भावना-सार भगवान जिनेन्द्र देव के वचन औषधि के समान हैं और पंच इन्द्रियों के विषयों के विरचन के लिए वीतराग भगवान् की वाणी अमत के समान है। उस दिव्य वाणी से जन्म-मरणरूपी व्याधियों का नाश होता है। वह अलौकिक वाणी संसारी जीवों के सभी दुःखों का क्षय करने वाली है। 0 जैन दर्शन किसी पदार्थ को एकान्त नहीं मानता । उसके मत से प्रत्येक पदार्थ अनेकान्त रूप हैं। केवल एक ही दृष्टि से किए गए पदार्थ निश्चय को जैन धर्म अपूर्ण समझता है। उसका कथन है कि पदार्थ का स्वरूप ही कुछ इस प्रकार का है कि हम उसमें अनेक प्रतिद्वन्द्वी परस्पर विरोधी धर्म देखते हैं । यदि वस्तु में रहने वाले किसी एक ही धर्म को लेकर उस वस्तु का निरूपण करें, उसी को सर्वांश रूप में सत्य समझें, तो वह विचार अपूर्ण एवं भ्रान्त ही ठहरेगा क्योंकि जो विचार एक दृष्टि से सत्य समझा जाता है तद्विरोधी विचार भी दृष्टयन्तर से सत्य ठहरता है। O जैसे सूर्य एक ही है, मेधों का आवरण होने से उसकी प्रभा के अनेक भेद हो जाते हैं, उसी तरह निश्चय नय से यह आत्मा भी अखण्ड है व एक तरह से प्रकाशमान है, ता भी व्यवहार नय से कर्मों के पटलों से घिरा हुआ है। इसलिए उसके ज्ञान के सुमात ज्ञान आदि बहुत भेद हो जाते हैं। 0 मैं राजा हूं, मैं धनवान हूं, मैं बड़ा हूं, मैं दीन हूं, मैं दुःखी हूं, मैं रोगी हूं, मैं निरोगी हूं, मैं सुन्दर हूं, मैं कुरूप हूं, मैं पुरुष ह, मैं स्त्री हूं इत्यादि अहंबुद्धि होती है। यह तन मेरा है, यह धन मेरा है, यह वस्त्र मेरा है, यह घर मेरा है, यह राज्य मेरा है, यह खेत मेरा है, यह आभूषण मेग है, यह भोजन मेरा है, यह ग्रन्थ मेरा है, यह मन्दिर मेरा है इत्यादि ममकार बुद्धि पैदा होती है। इस अहंकार ममकार के द्वारा वर्तन करते हुए चारों कषायों की प्रबलता हो जाती है और यह मोही प्राणी संसार के झंझटों में व सुख तथा दुःखों में उलझा रहता है । कभी अपने सच्चे सुख को व अपनी शान्ति को नहीं पाता है। " जब तक शोर में तन्दुरुस्ती है व जब तक इन्द्रियों में शक्ति मौजूद है तब तक तप कर लेना योग्य है। वृद्धावस्था में मात्र परिश्रम है, तब तप की सिद्धि कठिन है। जब तक आयु दृढ़ है तब तक धर्म कार्य में बुद्धि करनी योग्य है । जब आयु कर्म क्षय हो जायेगा तब तू क्या करेगा? हे आत्मन् ! पुष्पहीन होने के पश्चात् तुम्हारा मंत्र तंत्रादिक कोई भी शरण नहीं है । अतः किसी अन्य में बुद्धि न करके केवल धर्म को ही अपनाओ। १०४ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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