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तुझे दुःख उठाना पड़ता है। तू जड़ वस्तु पर राग और मोह को त्याग । तब तू सुखी हो जाएगा और असली निजात्म तत्त्व की प्रतीति तुझे होगी।
- तत्त्व श्रद्धानरूप सम्पग्दर्शन की अभिव्यक्ति की योग्यता से युक्त जीवों को ही भव्य जीव कहते हैं और जिसके अन्दर यह योग्यता नहीं है ऐसे जीवों को अभव्य कहते हैं । भव्य जीवों में ही मुक्ति की योग्यता है, अभव्यों में नहीं । भव्यजीवों के समुदाय को उस आत्मवस्तु की आराधना ही हितकारक होती है। उस आराधना से निबंध होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है।
Cयह आत्मा अमूर्त स्वभाव होने से रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द संस्थानादिक पौद्गलिक भावों से रहित है। धर्म, अधर्म, आकाश, काल-इन चार अमूर्त द्रव्यों से भी भिन्न है । स्वजीव सत्ता की अपेक्षा अन्य जीव द्रव्य से भी भिन्न है। आत्मा किसी पुद्गलिक चिह्न से ग्रहण नहीं किया जाता। यह आत्मा केवल अनुभवगम्य है, वचन से नहीं कहा जाता। कहने से अशुद्धता का प्रसंग आता है। इसलिए शुद्ध जीव द्रव्य ज्ञानगम्य है। जो अनुभवी हैं वे ही शांतरस के स्वाद को जानते हैं।
0 बाह्य पर-वस्तु के विचार मात्र से मन चंचल होता है। उसी चंचलता के निमित्त से यह आत्मा बहिरात्मा होती है। वही अपने आत्मा को मलिन करने के लिए निमित्त कारण हो जाती है। जब भेद-विज्ञान होता है, तब उस भेद-विज्ञान के द्वारा विषयवासना दूर होती है। इसलिए योगी के लिए अपनी सम्पूर्ण बाह्य इन्द्रियों को भेद-विज्ञान के द्वारा पर-पदार्थ से हटाकर अपनी आत्मा के अन्दर मनन करने को कहा गया है । जब तक अपनी आत्मा में रत नहीं होगे तब तक मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती; क्योंकि परद्रव्य का सम्बन्ध महा दुःख रूप है।
रत्नाकर-शतक
6 श्री जिनेन्द्र भगवान् ने नित्य देव-पूजा, शुभकारी गुरु-वचन का श्रवण, सतपात्र को प्रतिदिन दान, निर्मल शील का पालन, अपनी शक्ति के अनुसार शुद्ध तप व आचरण करना-इस संसार में शुभ भावना रखने वाले श्रावक का यह पवित्र मोक्ष मार्ग स्वरूप धर्म कहा है। श्री सर्वज्ञ वीतराग भगवान् के पूजन में प्रेम, अत्यन्त उदार बुद्धि से तीर्थयात्रा में श्रद्धा, पाप कर्मों में वैराग्य, मुनियों की चरण-सेवा में अगाध भक्ति, दान में आसक्ति, समस्त मिथ्यात्व को दूर करने में सद्धर्म भावना, धर्म-कार्य में अनुरक्ति-ऐसे आचरण करने वाले श्रावक शीघ्र ही संसार-बन्धन से मुक्ति पाते हैं।
0 गहस्थ को औषध के समान विषयों का सेवन करना चाहिए । अधिक विषयों को भोगने से व्यक्ति को शारीरिक और मानसिक नाना प्रकार की व्याधियाँ हो जाती हैं जिससे उसका जीवन कष्टमय बीतता है। इन्द्रिय-जय के समान संसार में अन्य कुछ भी सुखदायक नहीं है।
0 प्रधानतः मनुष्य में दो प्रकार की प्रवृत्तियाँ पायी जाती हैं - स्वाभाविक प्रवृत्ति और वैभाविक प्रवृत्ति। स्वाभाविक प्रवृत्तियों में प्रत्येक व्यक्ति के भीतर ज्ञान की मात्रा रहती है तथा वह व्रत समिति, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चरित्र की ओर बढ़ता है । वह संसार के यथार्थ स्वरूप को सोचता है कि इसमें कितना दुःख है। कर्मों में किसी का साझा नहीं है और न कोई किसी का सहायक ही है। अन्य पदार्थों की तो बात ही क्या, यह शरीर भी सहायता नहीं कर सकता । सांसारिक कष्टों को अपनी आत्मा से भिन्न समझ कर जो आत्मस्वरूप में स्थित होता है, वह रत्नत्रय को प्राप्त कर लेता है। उसकी प्रत्येक क्रिया रत्नत्रय को पुष्ट करने वाली होती है।
अनात्मा की ओर ले जाने वाले क्रोध, माया, लोभ रूप कषाय तथा प्रमाद के कारण जीव की वैभाविक प्रवृत्ति होती है। वैभाविक प्रवृत्ति वाला मनुष्य शरीर को ही आत्मा समझता है जिससे उसका प्रत्येक व्यवहार शरीराश्रित होने के कारण आत्मा के स्वभाव से विपरीत पड़ता है । जो व्यक्ति शरीर को अपना समझता है उसे प्रत्येक क्षण दुःख का अनुभव होता है। दुनिया के भौतिक पदार्थों का सम्बन्ध शरीर के साथ है आत्मा के साथ नहीं ।
0 इन्द्रिय भोग असंयमी जीवों को प्रिय मालूम होते हैं पर संयमी व्यक्तियों को उनमें रस नहीं मिलता। वे इनको देखकर उदासीन वृत्ति धारण कर लेते हैं । उनकी अन्तरात्मा संयम के महत्त्व को अच्छी तरह जान लेती है, अतः इन्द्रियों पर वे नियंत्रण करते हैं। महापुरुषों के जीवन की सबसे बड़ी महत्ता जो उनको आगे बढ़ाती है वह है विवेक और इन्द्रिय-नियंत्रण।
जितने भी महान् पुरुष, तीर्थंकर आदि हो गये हैं उनकी स्तुति करने से, अच्छे-अच्छे छन्दों में रचना करके गाने से मन की निर्मलता होती है और सुनने वाले के मन में भी निर्मलता आती है । इससे कर्म की निर्जरा होती है ।
0 ज्ञान की बड़ी महत्ता है । ज्ञान के समान संसार में और कुछ भी सुखदायक नहीं है। ज्ञान के बल से ही मनुष्य निर्वाण
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आचार्यसन श्री देव भूष्ण जी महाराज किमान प्राय
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