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________________ पुण्य के फन से अल्प सुख को पाकर फिर संसार में अनन्त दुःख भोगते हैं । इसलिए तुझे पुण्य और पाप इन दोनों से भिन्न शुद्धात्मा स्वरूप का मनन करना ही योग्य है। उसी से तुझे तृप्ति होगी । आत्म-कल्याण को छोड़कर तू कहीं भी मत जा । जो अज्ञानी जीव निजभाव में लीन नहीं होते, वे सभी दुःखों को सहते हैं । यह आत्म-कल्याण, प्रत्यक्ष में, संसार सागर को तरने का उपाय हैं । तू शुद्धात्मा की भावना कर । हे जीव ! तूने अनन्त भव प्राप्त कर पंचेन्द्रिय विषय रूपी शत्रु के लिए ही अपना जीवन बिता दिया । स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त करने के लिए एक भव भी दान नहीं दे सकता ? हे मनुष्य ! इस भव को स्वर्ग और मोक्ष के लिए दान कर, जिससे तेरी जिन्दगी सुधर जाए । [1] हे प्राणी ! विचार कर कि पंचेन्द्रिय विषय को तू नहीं भोग रहा है परन्तु पंचेन्द्रिय विषय तुझको भोग रहे हैं । हमने भोग नहीं भोगे बल्कि भोगों ने हमको भोगा है । हमने तप नहीं तपे बल्कि हम ही तपे हैं । काल नहीं बीता बल्कि हम ही समाप्त हुए हैं। तृष्णा वृद्ध नहीं हुई बल्कि हम ही जर्जरित हो गए हैं। D हे अज्ञानी जीव ! आज तक तेरी समझ में नहीं आया कि तेरा स्वरूप ज्ञान, दर्शन, चैतन्य, अखण्ड, अविनाशी और अमूर्तिक है। जो पदार्थ तेरे सामने दृष्टिगोचर हो रहे हैं वे जड़ हैं । तेरा और जड़ का स्वरूप भिन्न-भिन्न है । दोनों का सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? तेरा रूप हमेशा ब्रह्म स्वरूप है । तू अपने में उत्पन्न हुए अनन्त ज्ञान रूपी रस को ग्रहण करने वाला है । D जीव के अन्दर अशुभ, शुभ और शुद्ध तीन परिणाम होते हैं । अशुभ योग से पाप का बन्ध होता है और शुभ योग से पुण्य का । शुद्धोपयोग से पाप, पुण्य दोनों नष्ट होकर अन्त में मोक्ष की प्राप्ति होती है । अतः तीनों योगों में से शुद्धोपयोग का ध्यान करना ही ज्ञानी योगी के लिए उचित है । अगर तुझे शीघ्र ही मोक्ष की प्राप्ति करनी हैं तो मन को मार कर परब्रह्म का ध्यान कर । हे योगी ! तेरी बुद्धि क्या खोटी है जो तू संसार के कल्याणरूप व्यवहार करता है । अब तू मायाजाल रूप पाखण्डों से रहित जो सिद्धात्मा है उसको जानकर विकल्प जालरूपी मन को मार । 1] स्व पर ज्ञान से आत्मा को पहचान कर उसी के अन्दर रत रहना तथा रुचि रखना ही सच्चा शास्त्र है । उसी तत्त्व के अन्दर रमण करके सच्चे निजात्म तत्त्व में रमण करना ही तपश्चर्या है । पर वस्तु का सम्पर्क अपनी आत्मा से न होने देना ही दीक्षा है और गुरु ही यह दीक्षा देने वाले हैं । D भेद - विज्ञान से ही आत्मध्यान की सिद्धि होती है । आत्मा से पुद्गलमय शरीरादि अलग हैं । निर्मल आत्मा को शुद्ध चैतन्यमय सिद्ध भगवान् के समान जानकर जो उसी आत्मिक तत्त्व में अपने उपयोग को स्थिर कर देता है, वह आत्मा आत्मध्यान करके आत्मा की सिद्धि कर सकता है । भेद-विज्ञान द्वारा जो सामायिक का अभ्यास करते हुए आत्मध्यान में लयता प्राप्त करते हैं वे ही सच्चे समाधि भाव को पाते हैं । आत्मा के जल सदृश निर्मल स्वभाव में अपने मन को डुबाना चाहिए । ॐ या सोऽहं मन्त्र का आश्रय लेकर बार-बार मन को आत्मरूपी नदी में डुबोने से मन की चंचलता मिटती है और वीतरागता का भाव बढ़ता जाता है । आत्मध्यान ही परोपकारी जहाज है । इसी पर चढ़कर भव्य जीव संसार से पार हो जाते हैं । अतः ज्ञानी को आत्मज्ञान का अभ्यास करना चाहिए। C जिस प्रकार अमूर्त आकाश के ऊपर चित्र का निर्माण करना असम्भव है, उसी प्रकार अतीन्द्रिय आत्मा के विषय में कुछ वर्णन करना असम्भव है । जो उसका चिन्तन मात्र करता है उसका जीवन प्रशंसा के योग्य है । वह देवों के द्वारा भी पूजा जाता है । जो सर्वज्ञ देव संसार से पृथक् जीवन मुक्त होते हुए केवल ज्ञान रूप नेत्र को धारण करते हैं उन्होंने इस आत्मा के आराधन का उपाय एकमात्र समता भाव बताया है । अखण्ड, अविनाशी परम वीतराग निर्विकल्प आत्मानन्द सुखामृत अपने पास होते हुए भी यह जीव अपने आपको न समझकर पंचेन्द्रिय विषयों की ओर दौड़ता है। परद्रव्यों के द्वारा दुःखी हो सुख को बाहर ढूंढ रहा है। C संसार में जितने रूपी पदार्थ हैं वे सब चेतनारहित हैं तू शुद्ध चैतन्यज्ञान दर्शनपूर्ण है। अरूपी है। जड़ पदार्थ को तूने खुद पकड़ा हुआ है और तू अज्ञान अवस्था में पागल के समान "जड़ ने मुझको पकड़ा है -- छुड़ाओ- छुड़ाओ" आदि चिल्लाता है । अनेक प्रकार के दुःख, संताप सहते हुए संसार में परिभ्रमण करता है । इसलिए आचार्य कहते हैं कि हे जीव ! तू अज्ञान दशा में जड़ के साथ सम्बन्ध करके जड़ के द्वारा ही दुःख पा रहा है जैसे अग्नि लोहे की संगति से पीटी जाती है उसी तरह जड़ के संसर्ग से अमृत-कण Jain Education International For Private & Personal Use Only 5 www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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