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________________ जो न्यायपूर्वक धन-उपार्जन करता हो, अपने गुरुओं की पूजा, उपासना करता हो, सत्य बोलता हो, धर्म, अर्थ, काम-इन तीन पुरुषार्थों का अविरुद्ध सेवन करता हो, अपने योग्य स्त्री, मुहल्ला, घर वाला हो, लज्जाशील हो, योग्य आहार करने वाला हो, सज्जन पुरुषों की संगति करता हो, बुद्धिमान हो, कृतज्ञ हो, इन्द्रिय-विजयी हो, धर्म-उपदेश को सुनता हो, पापों से भयभीत हो, दयालुचित्त हो, ऐसा पुरुष श्रावक धर्म का आचरण करता है । अर्थात् श्रावक धर्म आचरण करने वाले व्यक्ति को ऊपर कहे गये गुणों से युक्त होना चाहिये। गृहस्थाश्रम को चलाने के लिये रुपया-पैसा आदि धन-सम्पत्ति की आवश्यकता हुआ करती है और धन-संचय करने के लिये बड़े प्रयत्न करने पड़ते हैं। गृहस्थ का अधिकांश समय इस धन-संचय में ही व्यतीत होता है, अत: धन-संचय करना तो बुरा नहीं है किन्तु वह धन-संचय अन्याय, अनीति, धोखाधड़ी, चोरी, बेईमानी, व्यभिचार, नीच कर्म से नहीं होना चाहिये। मन, शरीर और वचन के परिश्रम से न्यायपूर्वक होना चाहिये। न्यायपूर्वक कमाई अपने लिये तथा अन्य जनता के लिये बहुत लाभदायक होती है । अतः जो व्यक्ति अन्न का व्यापार करता है अथवा पंसारी, सोना-चांदी आदि का कार्य करता है उसको तोलने के बांट और तराजू ठीक रखनी चाहिये तथा तोलने में अनीति न करनी चाहिये । माल लेने के लिये भारी बांट और देने के लिए हल्के बाटों का प्रयोग छोड़ देना चाहिये । तराजू न्याय का चिह्न है अतः तराजू से बावन तोले पाव रत्ती के समान बिल्कुल ठीक तोलना चाहिये । जो व्यक्ति कपड़े का कार्य करता हो उसको नापने का गज ठीक नाप का रखना चाहिये, लेने के लिये लम्बा गज और देने के लिये छोटा गज न होना चाहिये तथा नापने की क्रिया भी ठीक रखनी चाहिये । जो व्यक्ति लेन-देन, साहूकारी का व्यापार करते हों उन्हें लेन-देन, ब्याज-बट्टा आदि में अनीति न करनी चाहिये । कर्ज लेने वाले तथा अपने आभूषण गिरवी रखने वाले गरीब प्रायः अपढ़ अशिक्षित होते हैं, हिसाब नहीं जानते हैं । उनसे लेन-देन में अनीति नहीं करनी चाहिये तथा रुपये पैसे को ही सब कुछ न समझकर गरीबों के साथ व्यापार में दया का बर्ताव करना चाहिये। यदि उनके पास कर्ज चुकाने के लिये कुछ न हो तो उनके रहने की झोंपड़ी नीलाम करा कर उन्हें निराश्रय बनाने की निर्दयता न करनी चाहिये । इसके सिवाय बढ़िया असली चीजों में कम मूल्य की घटिया वस्तु मिलाने की प्रवृत्ति छोड़ देनी चाहिये । खाने-पीने के पदार्थों तथा औषधियों में मिलावट करना हिंसा जैसा पाप है। इस कारण ऐसे कार्य कभी न करने चाहिये । चुंगी कर की चोरी, आय-कर (इन्कम टैक्स) की भी चोरी न करनी चाहिये । जिस देश में हम रहते हैं, जिस देश की पुलिस सेना हमारे प्राणों तथा सम्पत्ति की रक्षा करती है उस देश की शासन-व्यवस्था चलाने के लिये जा कर लगाये जाते हैं उनकी चोरी करना देशद्रोह है। देशद्रोह भी महान् पाप है। ____ व्यापार करते समय भावना लोककल्याण की रखनी चाहिये । कोई लोभी वैद्य व डाक्टर मन में सोचते रहते हैं कि रोग, बीमारियां फैलें तो हमारा व्यापर खूब चले। अनाज के व्यापारी बहुत-से नीच स्वार्थी लोग दुष्काल होने की भावना करते हैं जिससे उनको अच्छा लाभ हो, इत्यादि भावनाएं बहुत बुरी हैं। जैन व्यापारियों को ऐसी भावना कदापि न करनी चाहिये। जो व्यक्ति नौकरी करके धन-उपार्जन करते हैं उनको भी अपना कार्य नीतिपूर्वक ईमानदारी से करना चाहिये । जो कार्य उनको दिया जाय उसको अपना निजी कार्य समझकर नियत समय के भीतर समाप्त करने का यत्न करना चाहिये । जिसकी नौकरी करे उसको हानि पहुंचाने की चेष्टा कदापि न करनी चाहिये । इसी तरह मालिक को भी अपने नौकरों के साथ अपने पुत्रों तथा भाइयों के समान मीठा व्यवहार करना चाहिये, न उनके साथ कठोर बर्ताव करना चाहिये, न उनके वेतन देने में रंचमात्र अनीति करनी चाहिये। जहां तक हो सत्य बोलना चाहिये। जिस तरह मधु-मक्खी फूलों को बिना कष्ट पहुंचाये उनसे रस ले आती है इसी तरह जनता को कष्ट न देते हुए न्याय-नीति से व्यापार करना चाहिये । जो व्यक्ति दर्शन ज्ञान चारित्र में अपने से अधिक हैं ऐसे गुणवान सद्गुरुओं का आदर, विनय, सन्मान करना धार्मिक श्रावक का मुख्य कर्तव्य है। संसार से पार करने वाले साक्षात् तरणतारण गुरु ही होते हैं। उनके समान उपकार करने वाला व्यक्ति और कोई नहीं होता। इसलिये उनके गुण प्राप्त करने के लिये श्रद्धा से उनकी पूजा-उपासना करनी चाहिये । __ जैन श्रावक की वाणी (वचन) हित, मित, प्रिय, प्रामाणिक होनी चाहिये । वचन में क्रोध, अभिमान की झलक न हो, स्व-पर हितकारक हो तथा सत्य हो । भय-उत्पादक, क्षोभ उत्पन्न करने वाली बात न कहनी चाहिये। दीन-दुःखी प्राणियों के साथ मीठा बोलना चाहिये तथा आवश्यकता से अधिक न बोलना चाहिये। धर्म-साधन करने से पुण्य-कर्म का बन्ध होता है, पुण्य कर्म के उदय से धन का लाभ होता है, धन से इन्द्रियों के विषय-भोगों की साधन-सामग्री प्राप्त होती है । अतः सबसे प्रधान लक्ष्य धर्म-सेवन का होना चाहिये। प्रातःकाल सबसे पहले पवित्र होकर भगवान् का अमृत-कण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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