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आविष्कार की होड़ सब देशों में लग रही है । सब ओर अविश्वास और दुर्भाग्य चक्कर काट रहे हैं। अस्तु, आवश्यकता है आज फिर जैन-संस्कृति के, जैन तीर्थंकरों के, भगवान् महावीर के, जैनाचार्यों के अहिंसा परमो धर्म: के सन्देश की। मानव-जाति के स्थायी सुखों के स्वप्नों को एकमात्र अहिंसा ही पूर्ण कर सकती है । अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमम् । श्रावक का लक्षण
कर्मों का जटिल जाल छिन्न-भिन्न करके आत्मा को स्वतन्त्र करने के लिए उन क्रियाओं का त्याग करना कार्यकारी है जिनसे वह कर्मजाल टूटने के बजाय मजबूत होता जाता है। क्योंकि जिन क्रियाओं से कर्मबन्धन जटिल होता है, उन क्रियाओं को छोड़ कर उनसे विपरीत क्रियाएं करने से ही कमों से छुटकारा मिल सकता है।
कर्मबन्धन का मूल कारण मिथ्यात्व है । अतः आत्मा तथा अजीव, आस्रव आदि अन्य तत्त्वों के विषय में यथार्थ ज्ञान प्राप्त करके उन तत्त्वों की श्रद्धा ठोक करनी चाहिए और कुदेव, कुधर्म, कुशास्त्र, कुगुरु को श्रद्धा भक्ति त्याग कर सत् देव, सत् शास्त्र, सद्गुरु की उपासना करनी चाहिये । ऐसा करने से मिथ्यात्व का नाश होकर सम्यक्त्व गुण प्रगट होता है जिससे कि मिथ्या श्रद्धान के द्वारा जो कर्म-संचय होता था वह फिर नहीं होने पाता। मिथ्यात्व से छुटकारा पा लेने पर कर्मबन्धन के दूसरे कारण को दूर करने का यत्न करना चाहिये जिससे कर्म-आस्रव का दूसरा द्वार बन्द होकर आत्मा का कर्मभार और हल्का हो जाए।
कर्मबन्धन का दूसरा कारण ‘अविरति' यानी 'असंयम' है । असंयम का अर्थ 'अनियन्त्रण' यानी-अपने वश में न रखना है, जिसका अभिप्राय यह है कि आत्मा जब अपनी इन्द्रियों तथा मन पर नियन्त्रण नहीं रखता है तब इन्द्रियां और मन आत्मा को हिंसा, असत्य भाषण, चोरी, काम सेवन और परिग्रह-सचय में प्रवृत्त कर देता है। इन क्रियाओं से कर्मबन्धन ही नहीं होता है बल्कि आत्मा को बहुत दुःखदायक, दुर्गतियों में आत्मा की दुर्गति कराने वाला, अशुभ कर्मों का बन्ध हुआ करता है। इस कारण आत्मा की दुर्गति मिटाने के लिये असयम या हिंसा आदि पांच पाप कार्यों को छोड़ना परम आवश्यक है।
पापकार्यों का पूरी तरह से त्याग तो घरबार छोड़कर साधु बन जाने पर होता है क्योंकि साधु अवस्था में न धन-संचय की आवश्यकता है, न चोरी करने, झूठ बोलने और किसी जीव की हिंसा करने की आवश्यकता है। स्त्रियों का सम्पर्क तो बिल्कुल ही छूट जाता है। अतः कामसेवन का वहां पर कुछ काम नहीं । इसी तरह मुनिदशा में अविरतिका संसर्ग पूरी तरह से दूर हो जाता है। परन्तु गहस्थाश्रम में रहने वाला गृहस्थ इन पांच पापों को पूरी तरह नहीं त्याग सकता, क्योंकि खेतीबाड़ी, वाणिज्य, व्यापार द्वारा घर-परिवार के लिये धन-संचय की आवश्यकता होती है। इन कार्यों में कुछ न कुछ जीव-हिंसा होती ही है, थोड़ा-बहुत असत्य बोले बिना व्यापारिक कार्य नहीं होते । सन्तान उत्पन्न करने के लिये विवाह करना तथा मैथुन क्रिया होती है, घर के लिये आवश्यक अन्न, वस्त्र, बर्तन, घर, रुपया, पैसा आदि वस्तुओं का संचय करना ही पड़ता है। अतः गृहस्थ पापों को पूर्ण तौर से नहीं त्याग सकता।
इस कारण सम्यग्दृष्टि पापपंक से बचने के लिये संकल्पी त्रसजीवों की हिंसा (जान-बूझकर द्विइन्द्रिय आदि जीवों को मारना) का त्याग कर देता है। राज्य से दण्डनीय और पंचों से भण्डनीय (निन्दनीय) असत्य बोलने का त्याग कर देता है। जल और मिट्टी (जिन पर कि किसी विशेष व्यक्ति का अधिकार नहीं है) के सिवाय अन्य कोई भी पदार्थ बिना पूछे नहीं लेता। अपनी विवाहित स्त्री के सिवाय अन्य सभी स्त्रियों से काम-सेवन का त्याग कर देता है तथा अपनी आवश्यकता के अनुसार धन-सम्पत्ति नियमित करके और अधिक धन-सग्रह करने का त्याग कर देता है। इस तरह पांचों पापों का वह कुछ त्याग कर देता है। इसी कारण उसके इस त्याग को 'अणुव्रत' कहते हैं।
इस धार्मिक गृहस्थ का दूसरा नाम 'श्रावक' भी है जिसका अपभ्रंश शब्द अनेक जगह 'सरावगी प्रचलित हो गया है। श्रावक शब्द का अर्थ 'सुनने वाला है। यानी-जो अपने निर्ग्रन्थ गुरु से आत्म-कल्याण का उपदेश सुने (शृणोति इति श्रावकः) । श्रावक के अनेक तरह अनेक भेद किये गये हैं। उनके विषय में हम फिर कभी बतलायेंगे। यहाँ पर श्रावक का सामान्य स्वरूप सागारधर्मामृत ग्रन्थ में पण्डितप्रवर श्री आशाधर जी ने जो लिखा है, उसे बतलाते हैं । उन्होंने लिखा है
न्यायोपात्तधनो यजन् गुणगुरून् सद्गीस्त्रिवर्ग भजन, अन्योन्यानुगुणं तदर्हगृहिणी स्थानालयो ह्रीमयः । युक्ताहारविहार आर्यसमितिः प्राज्ञः कृतज्ञो वशी, शण्वन् धर्मनिधि दयालुरघभीः सागारधर्म चरेत् ॥
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रन्य
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