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________________ चैतन्य-रहित जड़ पदार्थ अजीब हैं । सभी दृश्यमान (दिखाई देने वाले) पदार्थ तो अजीव जड़ हैं ही, शरीर भी जड़ है। जब तक शरीर में जीव रहता है तब तक जीव के संबन्ध से शरीर को जीवित कह देते हैं। सभी भौतिक पदार्थ तथा चार अमूर्त पदार्थ-धर्म, अधर्म, आकाश, काल----अजीव पदार्थ हैं। इनमें से जीव के साथ सम्बद्ध होने वाला और उसको संसार जेल में रखने वाला 'कार्मण स्कन्ध' नामक पुद्गल (भौतिक) पदार्थ है, कार्मण स्कन्ध जब जीव के साथ सम्बद्ध हो जाते हैं तब वे 'कर्म' कहलाते हैं। कार्मण स्कन्धों को आकर्षित करने वाली (अपनी ओर खींचने वाली) एक 'योग' नामक शक्ति जीव में होती है जो कि मन, वचन, शरीर का सहयोग पाकर आत्मा के प्रदेशों (अंशों) में हलन-चलन (हरकत) किया करती है। इस योग शक्ति से जो कार्मण स्कन्धों का आकर्षण (खिचना) होता है उसको 'आस्रव' कहते हैं । आकर्षित कार्मण स्कन्धों का जीव के प्रदेशों के साथ कषाय के निमित्त से एकमेक (दूध पानी के समान) सम्बन्ध हो जाता है, उस दशा का नाम 'बन्ध' है । आस्रव और बन्ध क्रिया एक साथ होती हैं। संसारी जीव प्रति समय अनन्तानन्त परमाणुओं वाले कार्मण स्कन्धों का आस्रव और बन्ध किया करता है। इस आस्रव और बन्ध की मात्रा में कुछ कमी-बेशी तो हो जाती है, किन्तु दोनों बातें सदा होती रहती हैं। सम्यक्त्व व्रत, संयमादि द्वारा जो कर्म-आस्रव-प्रणाली रुकती जाती है, उस कर्म के आने की रोक का नाम संवर है । संसार अवस्था में, यानी पूरी तौर से कर्म नष्ट होने से पहले, कर्म-आस्रव पूरी तौर से नहीं रुका करता। आस्रव का कुछ-कुछ अंश रुकता जाता है । जैसे किसी कुंड में ५ मोरियों से जल भरता था उनमें से जब एक मोरी बन्द कर दी गई तब चार मोरियों से पानी आता रहा । जब दो मोरियों का मुख बन्द कर दिया तब पानी का आना और भी कम हो गया। इसी तरह कर्म आने के कारण ज्यों-ज्यों कम होते जाते हैं त्यों-त्यों संबर बढ़ता जाता है, यानी कर्म-आस्रव कम होता जाता है। अंत में जब आस्रव के सभी कारण नष्ट हो जाते हैं तब पूर्ण संवर हो जाता है, उसी समय मोक्ष हो जाता है। जिस प्रकार प्रतिसमय नये-नये कर्मों का बन्ध होता रहता है उसी तरह प्रतिसमय पहले के बन्धे कर्म उदय में आकर छूटते भी जाते हैं । इस तरह कर्मों की निर्जरा (छूटते जाना) प्रत्येक संसारी जीव के स्वयं हुआ करती है। इस सविपाक निर्जरा से जीव का कुछ कल्याण नहीं होता। किन्तु तपस्या करने से पूर्वबद्ध कर्म बिना फल देकर भी आत्मा से छूट जाते हैं-वह अविपाक निर्जरा है। मुक्ति में कारण यही अविपाक निर्जरा होती है। संवर और निर्जरा होते-होते जब समस्त कर्म आत्मा से छूट जाते हैं, आत्मा पूर्ण शुद्ध हो जाता है, उसको मोक्ष कहते हैं। जिस तरह चावल के ऊपर का छिलका उतर जाने के बाद फिर वह चावल नहीं बन सकता, इसी तरह एक बार समस्त कर्म छूट जाने पर फिर कर्मों का बंध नहीं होता । आत्मा सदा के लिये कर्म-बन्धन से मुक्त होकर अजर, अमर, निरंजन, निर्विकार, पूर्ण शुद्ध बन जाता है। संसारी जीव को पूर्ण शुद्ध करना है, अतः सबसे प्रथम जीव तत्त्व रक्खा गया है। जीव अजीवरूप पुद्गल (कर्म-नोकर्म) से संबद्ध होकर संसार में भ्रमण कर रहा है, अत: जीव तत्त्व के अनन्तर अजीव तत्त्व रक्खा गया । संसार के कारण आस्रव और बन्ध हैं, इसलिये तीसरा-बौथा तत्त्व आस्रव, बन्ध रक्खा गया। संसार में छूटने के भी दो कारण हैं, संवर और निर्जरा। इसलिये पांचवां-छठा तत्त्व संवर-निर्जरां रक्खा गया। संवर और निर्जरा का फल क्या होता है? मोक्ष । अत: मोक्ष को सबसे अन्त में रक्खा गया। १. (क) परमाणुओं में स्वाभाविक रूप से उनके स्निग्ध व रूक्ष गुणों में हानि, वृद्धि होती रहती है। विशेष अनुपात वाले गुणों को प्राप्त होने पर वे परस्पर बंध जाते हैं, जिनके कारण सूक्ष्मतम से स्थूलतम तक अनेक प्रकार के स्कंध उत्पन्न हो जाते हैं। पृथ्वी, अप्, प्रकाश, छाया आदि सभी पुद्गल स्कंध हैं। -जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, भाग ४-जिनेन्द्र वर्णी, पृ० ४४६-४७ (ख) "जीव के प्रदेशों के साथ बंधे अष्ट कर्मों के सूक्ष्म पुद्गल-स्कंध के संग्रह का नाम कार्मण शरीर है । बाहरी स्थूल शरीर की मृत्यु हो जाने पर भी इसकी मृत्यु नहीं होती।"-वही, भाग २, पृ० ७५ अमृत-कण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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