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सम्यक्त्व..
किसी भी कार्य के होने के लिये दो प्रकार के कारणों की आवश्यकता हुआ करती है-१. उपादान, २. निमित्त । दोनों कारणों के मिलने पर ही कार्य हुआ करता है । दोनों में से कोई भी एक हो, किन्तु दूसरा कारण न हो तो कार्य कभी नहीं होता। वस्तु में जो अपने कार्य रूप होने की शक्ति होती है उसे 'उपादान कारण' कहते हैं । उपादान कारण के सिवाय जो और दूसरे कारण उस कार्य के होने में सहायक हुआ करते हैं उनको 'निमित्त कारण' कहते हैं।
जैसे- आम का पेड़ उत्पन्न करने के लिये उपादान कारण आम की गुठली है, क्योंकि आम का पेड़ उत्पन्न करने की शक्ति उसी में है। किन्तु आम का पेड़ उगाने के लिये उस गुठली से ही पेड़ नहीं उग सकता। उसको दूसरे सहायक कारण मिलने चाहिये, जैसे पेड़ उगने योग्य जमीन । क्योंकि गुठली पत्थर पर पड़ी रहे या पानी में रहे अथवा किसी बर्तन में रक्खी रहे तो वह पेड़ पैदा न कर सकेगी। जहाँ उसके उगने योग्य जमीन होगी वहीं वह उग सकेगी। उसके साथ ही उसको उगने योग्य खाद्य, पानी, हवा तथा उगाने वाला माली, उसके उगने योग्य ऋतु आदि और पदार्थ भी होने आवश्यक हैं। जब सब कारण मिल जाते हैं तब आम का वृक्ष उत्पन्न होता है । वह न तो केवल गुठली से होता है और न केवल जमीन, पानी, खाद, हवा आदि से।
इसी प्रकार आत्मा की शुद्धि के लिये मूल कारण सम्यग्दर्शन (दर्शन शब्द का प्रसिद्ध अर्थ 'देखना' यहां नहीं लिया गया, यहाँ दर्शन का अर्थ 'श्रद्धान करना' लिया गया) है। सम्यक् शब्द का अर्थ 'ठीक' या 'भली प्रकार है। यानी-ठीक रूप से आत्मा की श्रद्धा होना सम्यग्दर्शन है। इसके उत्पन्न होने के भी दो कारण हैं । आत्मा तो उसका उपादान कारण है क्योंकि आत्मा में ही सम्यग्दर्शन उत्पन्न होने की शक्ति है । तत्त्वों का श्रद्धान होना, पांच लब्धियों का मिलना, योग्य अन्य साधनों का प्राप्त होना निमित्त कारण हैं।
गर्भाशय आदि होने पर भी, अपने पति का प्रसंग मिलने पर जिस तरह बन्ध्या स्त्री के सन्तान नहीं होती क्योंकि उस स्त्री में गर्भ धारण करने की योग्यता नहीं होती, इसी प्रकार तात्त्विक श्रद्धान, कुछ लब्धियों (करण लब्धि के सिवाय शेष ४ लब्धियों) तथा अन्य साधन मिलने पर भी अभव्य जीव में सम्यग्दर्शन प्रगट होने की स्वाभाविक योग्यता नहीं होती। इस कारण सम्यग्दर्शन का उपादान कारण 'भव्य जीव' है । भव्य जीवों में भी कुछ दुरानुदूर भव्य ऐसे होते हैं जिनमें सम्यग्दर्शन होने की स्वाभाविक योग्यता सोही किन्त उनको निमित्त कारण सम्यग्दर्शन के लिये नहीं मिल पाते। जैसे कि कोई अवन्ध्या (जो बांझ नहीं है, गर्भ धारण कर सकती है), कुलीन,(जिस कुल में स्त्री का दूसरा विवाह नहीं किया जाता), बाल विधवा स्त्री हो (पति का समागम होने से पहले ही पति
दो विधवा हो गई हो) तो सन्तान उत्पन्न करने की योग्यता होने पर भी जन्म भर पति का संयोग न मिलने के कारण सन्तान उत्पन्न न कर सकेगी। इसी तरह दुरानुदूर भव्य भी सम्यग्दर्शन होने के लिये ठीक उपादान कारण होते हए भी अन्य बाहरी निमित्त कारण न मिलने की वजह से कभी सम्यग्दर्शन प्रगट न कर सकेगा। तत्त्व
वस्तु के स्वरूप को तत्त्व कहते हैं (तस्य भावस्तत्त्वं योऽर्थों यथावस्थितस्तथा तस्य भवन), जैसे मनुष्यत्व (मनुष्यपना), पशत्व (पशता) आदि । तत्त्व वस्तु से पृथक् नहीं होता है जैसे-अग्नि से पृथक् उष्णता (गर्मी) नहीं रहती । अतः तत्त्व का अभिप्राय तत्वार्थ' यानी-'अपने स्वरूप सहित वस्तु' ही समझना चाहिये । इसी कारण श्री उमास्वामि आचार्य ने मोक्षशास्त्र में सम्यग्दर्शन का लक्षण बतलाते हए 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' यानी अपने स्वरूप सहित (मोक्षमार्ग-उपयोगी) पदार्थों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, ऐसा कहा ।
वैसे तो जगत् में घटत्व, पटत्व, पुस्तकत्व, मनुष्यत्व, पशुत्व आदि अनन्तानंत तत्त्व हैं। उनके ठीक या गलत श्रद्धान से आत्मा का कल्याण या अकल्याण नहीं होता। आत्मा को शुद्ध मुक्त करने के लिये श्रद्धेय तत्त्व सात हैं-१. जीव, २. अजीव, ३. आस्रव, ४. बन्ध, ५. संवर, ६. निर्जरा और ७. मोक्ष ।
जानने-देखने वाला (ज्ञान-दर्शन उपयोगमय) चेतन पदार्थ जीव है, जो संसार में कर्मबन्ध के फलस्वरूप मिले हुए मनुष्य, पश, देव, नारकी के शरीर में से किसी एक शरीर में कुछ समय तक रहकर अपने पिछले कर्मों का फल भोगता है तथा भविष्य के लिये अन्य कर्म संचित किया करता है । इसी संसारी जीव को विकारी भावों से छुड़ाकर शुद्ध और कर्म-बन्धन से छुड़ाकर मुक्त करने का प्रारम्भिक मूल उपाय 'सम्यग्दर्शन' है। यानी-संसारी जीव को यह दृढ़ श्रद्धान होना चाहिये कि मैं इस समय विकृतबद्ध अवस्था में हूं, विकारों तथा कर्मों को हटा कर शुद्ध-मुक्त हो सकता हूं।
आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रन्य"
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