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________________ शिर झुकाकर नमस्कार करना, उनके पीछे-पीछे चलना, उनके आते ही खड़े हो जाना, उनके बैठ जाने पर उनकी अनुमति से बैठना, उनके चरण-स्पर्श करना, उनके पैर दबाना, थकावट दूर करने के लिये उनके हाथ, पैर, पीठ आदि दबाना आचार्य भक्ति है। सामायिक सामायिक का अर्थ मन को एकाग्र कर अपने आत्म-स्वरूप का ध्यान करना, अपने आत्मा के अन्दर ऐक्य होना तथा पर पदार्थ से भिन्न होकर अपने आत्म-स्वरूप में रत होना है। सामायिक की व्याख्या-संसार में अपनी आत्मा से जितने भी पर पदार्थ हैं उसमें अपना उपयोग नहीं जाने देना, उस पर-पदार्थ को बिलकुल ही भूल जाना और अखण्ड अविनाशी अपनी आत्मा के अतिरिक्त 'कोई भी अन्य वस्तु संसार में मेरी नहीं है" ऐसा मान करके संसार, शरीर और भोग इत्यादि से विरक्त होकर कुछ समय के लिए या एक घन्टे के लिए इस तरह मन में संकल्प करना कि आत्मा का ध्यान करते समय मैं अपने शरीर आदि को भी पर-पदार्थ समझ करके अपनी आत्मा में ही लीन रहूंगा तथा मेरे ऊपर चाहे जितना भी कष्ट क्यों न हो, पर मैं आत्मा की तरफ से अपना मन न हटा कर किसी पर-वस्तु में तिल मात्र भी उपयोग नहीं लगाऊंगा, इस तरह से मन, वचन व काय को रोक कर अपने आत्मा में रत होना सामायिक है। सामायिक की निरुक्ति एवं भाव इस प्रकार है कि "सम" कहिए एकरूप होकर, “आय" कहिए आगमन अर्थात् पर द्रव्यों से निवृत्त होकर आत्मा में उपयोग की प्रवृत्ति होना । अथवा "सम" कहिये रागद्वेष रहित, “आय" कहिये उपयोग की प्रवृत्ति सो सामायिक है। भावार्थ :-साम्यभाव का होना ही सामायिक है। यह नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से छह प्रकार का है। यथा इष्ट, अनिष्ट नामों में रागद्वेष न करना । मनोहर, अमनोहर स्त्रीपुरुषादि की काष्ठ, पाषाणादि की स्थापना में रागद्वेष न करना । मनोज्ञ, अमनोज्ञ, नगर, ग्राम, वन आदि क्षेत्रों में रागद्वेष न करना । वसन्त, ग्रीष्म ऋतु तथा शुक्ल-कृष्ण पक्ष आदि कालों में रागद्वेष न करना । जीवों के शुभाशुभ भावों में रागद्वेष न करना । इस प्रकार साम्यभाव रूप सामायिक के साधन के लिये बाह्य में हिंसादि पंच पापों का त्याग करना और अन्तरंग में इष्ट-अनिष्ट वस्तुओं से राग-द्वेष-त्याग की भावना करना परमावश्यक है, क्योंकि इन विरोधी कारणों को दूर करने और अनुकूल कारणों को मिलाने से ही साम्यभाव होता है। इस साम्यभाव के होने पर ही आत्मा के स्वरूप में चित्त मग्न होता है, जो सामायिक धारण करने का अन्तिम साध्य है। जब सामायिक योग्य द्रव्य (पात्र), योग्य क्षेत्र, योग्य काल, योग्य आसन, योग्य विनय, मनः शुद्धि, वचन शुद्धि , कायशुद्धि पूर्वक की जाती है तभी परिणाम में शांति-सुख का अनुभव होता है। यदि इन बाह्य कारणों की योग्यता-अयोग्यता पर विचार न किया जाय तो सामायिक का यथार्थ फल प्राप्त नहीं हो सकता, अतएव इनका विशेष स्वरूप वर्णन किया जाता है। (१) योग्य द्रव्य (पात्र)-सामायिक के पूर्ण अधिकारी निर्ग्रन्थ मुनिराज ही हैं। उन्हीं में सामायिक संयम होता है, क्योंकि उन्होंने अपने पंचेन्द्रियों को वश में करके अन्तरंग कषायों को निर्बल कर डाला है। बाह्य परिग्रहों को तज, षट्काय की हिंसा का सर्वथा त्याग कर दिया है, जिससे उनके सदाकाल समभाव रहता है । ऋषि श्रावक (गृहस्थ या गृहत्यागी) केवल नियत काल तक सामायिक की भावना भावने वाला सामायिक व्रती या नियत काल तक समता भाव धारण करने वाला सामायिक प्रतिमाधारी हो सकता है। जिस सामायिक के द्वारा मुनि शुद्धोपयोग को प्राप्त होकर संवरपूर्वक कर्मों की निर्जरा करते हैं और समस्त कर्मों को क्षय कर मोक्ष को प्राप्त होते हैं, उसी सामायिक के प्रारम्भिक अभ्यासी श्रावक, शुभोपयोग द्वारा सातिशय पुण्य बंध करके अभ्युदययुक्त स्वर्गसुख भोग, परम्पराय मोक्ष के पात्र हो सकते हैं। (२) योग्य क्षेत्र-जहां कलकलाहट शब्द न हो, लोगों का संघट्ट (भीड़-भाड) न हो, स्त्री, पुरुष, नपुसक का आना-जाना, ठहरना न हो, गीत-गान आदि की निकटता न हो, डांस मच्छर, कोड़ी आदि बाधाकर जीव-जन्तु न हों, अधिक शीत-उष्ण-वर्षा, पवनादि चित्त को क्षोभ उपजाने वाले तथा ध्यान से डिगाने वाले कारण न हों, ऐसे उपद्रव-रहित वन, घर, धर्मशाला-मन्दिर व चित्त-शुद्धि के कारण अतिशय क्षेत्र , सिद्धक्षेत्र आदि एकान्त स्थान ही सामायिक करने योग्य हैं। (३) योग्य काल-प्रभात, मध्याह्न, संध्या -- इन तीनों समयों में उत्कृष्ट ६ घड़ी, मध्यम ४ घड़ी और जघन्य २ घड़ी योग्यतानुसार सामायिक का काल है। इसके सिवाय अधिक काल तक या अतिरिक्त समय में सामायिक करने के लिये कोई निषेध नहीं है । सबेरे ३ घड़ी, २ घड़ी, १ घड़ी, रात से ३ घड़ी, २ घड़ी १ घड़ी दिन चढ़े तक, मध्याह्न में ३ । २ । १ घड़ी पहिले से ३।२।१ घड़ी २४ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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