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इस तरह आचार्य अपने मुनि-संघ के नायक होते हैं । जिस तरह बिना नायक के घर की व्यवस्था, समाज की दशा और देश की अवस्था बिगड़ जाती है, छिन्न-भिन्न हो जाती है, उसी तरह बिना आचार्य के मुनिसंघ में भी अनेक तरह की विषम समस्याएं आ खड़ी होती हैं । उन्हें सुलझाकर पयप्रदर्शन करने के लिये मुनिसंघ का नायक हाना परम आवश्यक है।
आचार्य महाराज को मुनिसंघ की व्यवस्था के लिये अपना बहुत-सा अमूल्य समय देना पड़ता है जिसको कि वे आत्मध्यान, स्वाध्याय आदि आत्मशुद्धि के साधनों में लगा सकते हैं । इसके अतिरिक्त नायक होने के कारण उनको अपने संघ के साधुओं की व्यवस्था के लिये थोड़ा-बहुत चिन्तातुर भी होना पड़ता है जिससे कि राग-द्वेष का अंश भी उनको लगा करता है। इस कारण आचार्य पद पर रहते हुए उनको मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती । वे जब तक अपने स्थान के योग्य किसी अन्य अनुभवी तपस्वी मुनि को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करके स्वयं साधु के रूप में आकर निर्द्वन्द्व तपस्या नहीं करते तब तक उनको मुक्ति प्राप्त नहीं होती। इस प्रकार आचार्य एक पद है जिसको किसी सुयोग्य व्यक्ति द्वारा सर्व संघ की अनुमति से परोपकार-बुद्धि से ग्रहण किया जाता है और किसी समय आत्मकल्याण की उत्कट भावना से परित्याग भी किया जाता है।
___ आचार्य महाराज वैसे तो अन्य साधुओं के समान २८ गुणों का आचरण करते हैं, किन्तु उनके अतिरिक्त ३६ गुण उनमें और भी माने गये हैं :--१२ तप, १० धर्म, ५ आचार, ६ आवश्यक और ३ गुप्ति ।
६ प्रकार के बहिरंग और ६ प्रकार के अन्तरंग तपों को निर्दोष रूप में आचार्य अन्य मुनियों की अपेक्षा विशेष रूप से आचरण करते हैं।
इसी तरह उत्तम क्षमा आदि १० धर्मों का आचरण भी अन्य साधुओं की अपेक्षा आचार्य का श्रेष्ठ होता है। छह आवश्यक यद्यपि अन्य मुनि भी पालते हैं, परन्तु आचार्य आदर्श रूप में इनका आचरण करते हैं। आत्म-शुद्धि की विशेष कारणभूत ३ गुप्तियों का परिपालन भी आचार्य द्वारा विशेषता के साथ होता है।
आचार के ५ भेद हैं-१. दर्शनाचार, २. ज्ञानाचार, ३. चारित्राचार, ४. तपाचार, ५. वीयांचार । इन पांचों आचारों का आचरण आचार्य पद की एक मुख्य विशेषता है। आचार्य नाम भी इन पाँच आचारों के आचरण के कारण है।
सम्यग्दर्शन का निर्दोष, दृढ़ता के साथ आचरण करना दर्शनाचार है । सम्यग्दर्शन आत्म-शुद्धि की मूल भूमिका है। यदि इसमें जरा भी शिथिलता आ जावे तो आचार्य अन्य साधुओं को मुक्ति-मार्ग पर किस प्रकार चला सकता है ? अत: आचार्य का 'दर्शनाचार' आदर्श होता है।
जैन सिद्धान्त का पूर्ण ज्ञान तथा साथ ही अन्य सिद्धान्तों का परिज्ञान, तर्क, व्याकरण, साहित्य आदि का असाधारण ज्ञान होना ज्ञानाचार है। आचार्य महान् ज्ञानी होते हैं । जैन सिद्धान्त की सिद्धि और अन्य मतों के खण्डन में अतिनिपुण होते हैं। अवसर आने पर शास्त्रार्थ करके जैनधर्म की प्रभावना करते हैं । शास्त्र-निर्माण करते हैं । यह ज्ञानाचार की विशेषता है ।
बारह प्रकार के तपों में से वे कठोर तप करने के असाधारण अभ्यासी होते हैं । अतः तपाचार भी उनका श्रेष्ठ होता है।
कठोर परिषह, भयानक उपसर्ग सहन करने से, निर्जन भयानक स्थान में ध्यान लगाने से, दुर्द्धर विकट तपस्या करने से तथा और भी विकट परिस्थितियों से वे कतराते नहीं हैं । सिंह के समान उनकी मनोवृत्ति सदा निर्भय रहती है। इन विशेषताओं के कारण आचार्य में वीर्याचार माना जाता है ।
उनका चारित्र निर्दोष होता है। पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति-इस तेरह प्रकार के चरित्र का जैसा अच्छा आचरण आचार्य महाराज का होता है, उतना अच्छा आचरण संघ के अन्य किसी साधु का नहीं होता । यही उनका चारित्राचार है।
गुरु के तीन भेद है-आचार्य, उपाध्याय और साधु । इनमें आत्म-शुद्धि के साधन की दृष्टि से देखा जाय तो साधु श्रेष्ठ होते हैं, क्योंकि ये समस्त संकल्प-विकल्प से मुक्त होकर आत्मसाधना करते हैं । परन्तु लोक-कल्याण की दृष्टि से विचार किया जावे तो आचार्य का पद सबसे उच्च है, क्योंकि मुनि-संघ की सुव्यवस्था करके वे मुनियों का ही नहीं, अपितु संसार का महान् उपकार करते हैं। अतएव अर्हन्त व सिद्ध भगवान् के बाद आचार्य परमेष्ठी का पद रक्खा गया है।
उन आचार्य महाराज की भक्ति करना आचार्य-भक्ति है। अर्हन्त भगवान् के साक्षात् अभाव में मोक्षमार्ग का नेता आचार्य ही तो होता है। उनकी आज्ञा का पालन करना, उनका हृदय से सम्मान करना, उनको ऊंचे आसन पर बैठाना, उनको हाथ जोड़ कर,
अमृत-कण
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