________________
सूबता फिरता है और भटकते-भटकते खेदखिन्न हो जाता है । परिणाम यह होता है कि वह शिकारी के हाथ में पड़ जाता है और उस कस्तूरी का उपभोग उस हिरण के बजाय वह शिकारी उसके पेट को चीर कर, कस्तूरी निकाल कर करता है।
एक तेल बेचने वाले तेली को कहीं से एक सेर भर पारस पत्थर मिल गया। तेली का सौभाग्य था जो ऐसी मूल्यवान् निधि उसके हाथ आ गई। वह यदि चाहता तो मनों लोहे को उस पारस पत्थर से छुआ-छुआ कर सोना बना लेता किन्तु उस अभागे के भाग्य में यह बात थी ही नहीं । उसे पता ही न था कि 'मेरे पास ऐसा अमूल्य पत्थर है, मुझे अब घर-घर फिर कर यों तेल बेचने की क्या आवश्यकता है । मैं तो घर में बैठ कर ही जरा से परिश्रम से अपने घर सोने का ढेर लगा सकता हूं।' उस अभागे तेली ने उस अमूल्य पारस पत्थर को केवल पत्थर ही समझा और इसी कारण उस पारस को अपना तेल तोलने के लिये एक सेर का बाट ही बना लिया।
ठीक ऐसी ही दशा संसारी जीव की है। वह सुखदायक पदार्थ की खोज में इधर-उधर भटकता-फिरता है । लोकाकाश का कोई भी प्रदेश इससे अछूता नहीं रहा, कहीं यह नारक बनकर पहुंचा, तो कहीं पर देव बनकर, कहीं मनुष्य के रूप में पहुंचा तो कहीं पशु-पर्याय के रूप में। मुक्त जीवों का सिद्ध क्षेत्र भी निगोदी जीव के रूप में इसने जाकर छू लिया। वहाँ पर बहुत समय तक रहा भी ।
सभी ग्राह्य पुद्गल वर्गणाओं के कारण यह एक बार नहीं, किन्तु अनेक बार अनन्त रूप ग्रहण कर चुका है। कोई भी परमाणु इससे अछूता न रहा, परन्तु उस अनन्त अतीत काल में इसकी सुख की प्यास कण-मात्र भी एक क्षण के लिये भी न बुझी, यह तो अब तक सुख का भूखा ही रहा तथा भविष्य में भी यह जब तक अपने रहस्यमय भण्डार से अपरिचित बना रहेगा तब तक इसकी यह भूख मिटेगी भी नहीं।
___अपनी सुख की इच्छा तृप्त करने के लिये मनुष्य विविध विचित्र मान्यताओं को अपने ही लिए सिद्धान्त बना लिया करते हैं । कभी किसी मनुष्य ने किसी कार्य के लिये जाते हुए दही से भरा हुआ पात्र देख लिया और सौभाग्य से उसको अपने कार्य में सफलता मिल गई तो वह समझ लेता है कि दही का दर्शन मंगलमय है, दही को खाकर या देखकर किसी कार्य-सिद्धि के लिये जाना चाहिये। किसी व्यक्ति को प्रातः सबसे प्रथम गाय दीख गई और उसका वह दिन सुख-शान्ति-समृद्धि से व्यतीत हुआ तो उसने तथा जनता ने सिद्धान्त बना लिया कि प्रातः गाय का दर्शन मंगलरूप है।
इसी प्रकार विभिन्न लोगों ने जल-पूरित कलश को मंगल-कुम्भ तथा पीली सरसों, हल्दी, दूर्वा, कुमारी कन्या आदि का प्रथम दर्शन आदि मंगलरूप मान लिया है। कामी पुरुषों ने व्यभिचार-परायण वेश्या को मंगलामुखी मान लिया है, किन्तु ये सब सांसारिक मान्यतायें गलत हैं । सांसारिक सुख की प्राप्ति उक्त पदार्थों को प्रातः सब से पहले देख लेने मात्र से हो जाती तो प्रत्येक व्यक्ति दही, हल्दी, पीली सरसों, जल से भरा हआ कलश आदि पदार्थ अपने-अपने घर पर रख कर प्रतिदिन मंगलमय दिवस बना लेते, तब किसी को किसी दिन कोई दुःख होता ही नहीं।
सातावेदनीय कर्म के उदय से संसारी जीवों को सुख मिलता है और असातावेदनीय कर्म के उदय से दुःख मिलता है । सातावेदनीय का संचय शुभ कार्य करने से होता है । अतः भ्रान्त भावना त्याग करके दुःख के कारणभूत कर्मों को दूर करने के लिये तथा शुभ कर्मों के उपार्जन करने के लिये मंगलकारी पदार्थों तथा कार्यों का आश्रय लेना चाहिये। तदनुसार जगत् में मंगल (सुख-शांतिदायक) पदार्थ चार हैं
अरहंत मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं।
अल
अर्थात्-जगत् में अर्हन्तदेव, सिद्धभगवान्, साधु तथा सर्वज्ञ-प्रतिपादित धर्म-ये चार पदार्थ मंगलरूप हैं, स्वयं मंगलरूप हैं तथा अपने आराधक उपासक का मंगल करने वाले हैं।
अर्हन्त मंगल
आत्मध्यान-निमग्न योगी जब शुद्धोपयोग शुक्ल ध्यान द्वारा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय-इन चार घाति कर्मों का समूल क्षय करके अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तबल प्राप्त कर लेते हैं, तब वे पूर्ण वीतराग, सर्वद्रष्टा, अर्हन्त परमात्मा हो जाते हैं, शरीर में रहते हुए भी जीवन्मुक्त होते हैं । अजर, अमर, निरजन, निर्विकार हो जाते हैं। उनकी समस्त इच्छायें समूल विलीन हो जाती हैं ।
१८
आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org