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________________ अर्थात्-जो इन्द्रियों की विषय-वासनाओं से अलिप्त हो, खेती, व्यापार , उद्योग तथा भोजनादि के आरम्भ-कार्यों से अलग रहता हो, किसी भी प्रकार का रंच मात्र भी परिग्रह जिसके पास न हो, जो ज्ञानाभ्यास करने में तथा आत्मध्यान में लगा रहता होऐसा तपस्वी साधु प्रशंसनीय है। ५ महाव्रत, ५ समिति, ५ इन्द्रियविजय, ६ आवश्यक तथा नग्नता, भूमि-शयन, स्नान-त्याग आदि ७ यम-इस तरह २८ मूलगुण साधु परमेष्ठी के होते हैं। इन्हीं २८ मूल गुणों के आचरण करने वाले साधुओं में जो सबसे अधिक विद्वान होते हैं, तथा अन्य साधुओं को सिद्धान्त, न्याय, आचार, व्याकरण आदि विषयों का ज्ञानाभ्यास कराने की योग्यता रखते हैं, ऐसे विद्वान् साधु को उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित किया जाता है । २८ मूल गुणों का आचरण करते हुए मुनियों को पढ़ाना इनका विशेष कार्य होता है। अतः ११ अंग, १४ पूर्वका ज्ञान होना ये २५ गुण (२८ मूल गुणों के सिवाय और) बतलाये गये हैं। कुलपति के समान जो मुनि-संघ में प्रधान होते हैं, जिनसे कि मुनि-दीक्षा ग्रहण की जाती है, जो संघ के साधुओं को किसी चरित्र-सम्बन्धी त्रुटि का प्रायश्चित्त देते हैं, समस्त साधु जिनकी आज्ञानुसार प्रवृत्ति करते हैं, वे आचार्य होते हैं । २८ मूल गुण पालन करते हुए १२ तप, १० धर्म, ५ आचार, ६ आवश्यक, ३ गुप्ति-इन ३६ गुणों का और भी विशेष आचरण आचार्य किया करते हैं। महाव्रती मुनि जिस समय आत्मध्यान में तन्मय होकर सातवें गुणस्थान में पहुंच जाते हैं, उस समय जिस मुनि के परिणाम और अधिक विशुद्ध होते हैं उस मुनि के शुक्लध्यान प्रारम्भ होते ही आठवां गुणस्थान प्रारम्भ हो जाता है । अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ तथा मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति--इन ७ प्रकृतियों के सिवाय शेष चारित्र-मोहनीय की २१ प्रकृतियों को क्षय करने के लिये जो मुनि क्षपक श्रेणी को प्रारम्भ करता है, वह उन प्रकृतियों का क्षय करता हुआ नवें गुणस्थान में स्थूल संज्वलन लोभ के सिवाय शेष सब प्रकृतियों का क्षय करता है । दसवें गुणस्थान में उस लोभांश को और भी सूक्ष्म करके, १२वें गुणस्थान में उसका समूल नाश कर देता है। इस गुणस्थान के अन्त में ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अन्तराय कर्म का नाश करके १३वें गुणस्थान में पहुंच जाता है। इतना बड़ा भारी कार्य केवल पहले दो शुक्ल ध्यानों के द्वारा अन्तर्मुहूर्त में हो जाता है। १३वें गुणस्थान में पहुंचने पर अर्हन्त परमात्मा का पद प्राप्त हो जाता है। ज्ञानावरण व दर्शनावरण कर्म नष्ट हो जाने से वे पूर्ण त्रिकाल त्रिलोक के ज्ञाता, पूर्णज्ञाता-द्रष्टा, मोहनीय कर्म न रहने से पूर्ण सुखी और अन्तराय कर्म का क्षय हो जाने से उन्हें अनन्त बल प्राप्त हो जाता है। इस तरह अनन्तचतुष्टय के धारक अर्हन्त भगवान् वचन-योग के कारण निरीह भाव से धर्म उपदेश देकर धर्म प्रचार करते हैं । तीर्थंकरों के उपदेश के लिये समवशरण नामक विशाल तथा सुन्दर सभा-मण्डप देवों द्वारा बनाया जाता है । अर्हन्त परमात्मा जब योग-निरोध करके १४वें गुणस्थान में पहुंचते हैं तब अ इ उ ऋ ल-इन लघु अक्षरों के उच्चारण योग्य थोड़े से समय में शेष वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र इन चार अघाति कर्मों का नाश करके द्रव्यकर्म, भावकर्म से रहित होकर अशरीर, निष्कलंक, शुद्ध आत्मारूप होकर, अन्तिम शरीर आकार से कुछ कम मनुष्याकार में स्थित होकर, स्वयं लोक के सर्वोच्च स्थान में जाकर ठहर जाते हैं। वे सिद्ध परमेष्ठी हैं । ___ इस संसार में आध्यात्मिक गुणों के विकास के कारण ये ५ परमेष्ठी ही समस्त जगत्वर्ती जीवों में श्रेष्ठ होते हैं, इसी कारण इनका नाम परमेष्ठी है । णमोकार मन्त्र में किसी व्यक्ति-विशेष को नमस्कार न करके इन्हीं पांच परमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है। प्रत्येक आत्मशुद्धि-इच्छुक स्त्री-पुरुष को अपने सामने इन्हीं पांच परमेष्ठियों को आदर्श रखकर धर्म-आराधना में तत्पर रहना चाहिये। जगत् में चार मंगल यह तो ठीक है कि संसारी जीवों की अमूल्य, अट, अक्षय और असीम आत्मनिधि कर्म के आवरण में छिपी हुई है, किन्तु है तो उसके अपने घर में ही, कहीं बाहर तो नहीं है । उसे स्वयं अपने उस अटूट भण्डार का पता न हो तो न सही, किन्तु वह भण्डार है तो उसी के पास । उसके सिवाय कोई अन्य व्यक्ति तो उसको न ले सकेगा । कस्तूरी-हिरण अपनी ही नाभि की कस्तूरी की सुगन्धि से मस्त हो जाता है किन्तु उस अभागे को इस बात का रहस्य ज्ञात नहीं होता। इसी कारण उस सुगन्धि को वह अन्य वृक्षों, झाड़ियों, घास, पौधों में अमृत-कण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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