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________________ पहनने ओढ़ने के विषय में विचार किया जाए तो ज्ञात होता है कि पशु-पक्षियों की अपेक्षा मनुष्य में बहुत-कुछ कृत्रिमता (बनावटीपन) आ गयी है । विभिन्न देश के रहने वाले स्त्री-पुरुषों के विभन्न वेश हैं। किसी देश के स्त्री-पुरुष लम्बे कपड़े पहनते हैं, किसी देश के छोटे पहनते हैं, कोई ढीले कपड़े पहना करते हैं, कोई तंग वस्त्र पहनते हैं, कोई पेड़ों के पत्तों, छालों से शरीर को ढंकते हैं, कोई पक्षियों के परों से शरीर आच्छादन करते हैं, कोई चर्म के वस्त्र पहनते हैं, किसी देश में प्रायः ऊनी वस्त्र काम में लिये जाते हैं, कहीं पर ऊनी सूती दोनों तरह के वस्त्र पहने जाते हैं। अन्य देशों की बात छोड़कर हम भारत के विभिन्न प्रान्तों का पहनावा देखें तो उसमें परस्पर बहुत अन्तर है। पंजाब, बंगाल, मद्रास, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र प्रान्तों में स्त्री पुरुषों की वेशभूषा विभिन्न प्रकार की है : आसाम के नागा लोग तथा अनेक देशों के मूल निवासी बहुत थोड़ा-सा वस्त्र पहन कर प्रायः नग्न रहते हैं। इन सब बातों से यह बात ज्ञात होती है कि मनुष्य की वेशभूषा में बनावटी रूप आ गया है । पशु-पक्षी सदा नग्न रहते हैं फिर न उनको शीत ऋतु में कफज्वर (निमोनिया) होता है, न वर्षाऋतु के अन्त में मलेरिया होता है और न ग्रीष्म ऋतु में उनका कभी गर्मी से पित्तज्वर होते सुना है। जंगलों में उनके लिये न कहीं अस्पताल खुले हैं, न समशीतोष्ण (एअरकण्डीशन के) भवन बने हुए हैं। फिर भी वे सदा स्वस्थ हृष्ट-पुष्ट रहते हैं । अपने लिये सुख-साधनों की व्यवस्था करने वाला, वस्त्रों से लदा हुआ, सभ्यता का पुजारी मनुष्य ही प्रत्येक ऋतु में विभिन्न रोगों से पीड़ित हुआ करता है और प्लेग, हैजा, राज्यक्ष्मा, मलेरिया आदि का शिकार होकर अकाल मृत्यु का शिकार होता रहता है। __ मनुष्य के वस्त्र पहनने में दो कारण हैं -एक तो यह कि उसने अपनी शारीरिक सहनशक्ति को बिगाड़ लिया है। इसी कारण वह पशु-पक्षियों के समान अपने प्राकृतिक नग्नवेश में नहीं रह सकता । नग्न रहने पर सर्दी गर्मी लग जाने का उसे भय बना रहता है । दूसरे -मनुष्य के मन में उत्पन्न होने वाली कामवासना उसकी कामेन्द्रिय में विकार खड़ा कर देती है, अपनी उस ऐन्द्रिय निर्बलता को छिपाने के लिये अपने उन अंगों को वस्त्र से ढक कर गुप्त रखना पड़ता है जिससे उसके मानसिक विकार को अन्य व्यक्ति देख न सकें। उसे सभ्य सदाचारी जानते रहें। ___ कोई-कोई साधुवेशधारी कामविकार को रोकने के विचार से अपनी मूत्र इन्द्रिय रस्सी से कस कर बाँध देते हैं। कोई उसके साथ लोहे का टुकड़ा लटका देते हैं इत्यादि क्रिया कामवासना को रोकने के लिये करते हैं। संभवतः उन्हें मालूम नहीं कि कामवासना मन से उत्पन्न होती है । अत: इन्द्रिय के विकार को रोकने के लिये मन में अखण्ड ब्रह्मचर्य की भावना जाग्रत रहना आवश्यक है। मूत्र न्द्रिय को बांधना आदि अकार्यकारी हैं। मनुष्य यदि प्रकृति में रहन-सहन का अभ्यासी हो जाए तथा अपने मानसिक काम-विकार पर विजय प्राप्त कर ले, तो फिर उसे कोई भी वस्त्र पहनने की आवश्यकता नहीं है। भगवान् ऋषभनाथ ने जब घर-परिवार से, संसार से, शरीर से तथा विषयभोगों से विरक्त होकर साधुदीक्षा ली, उस समय उन्होंने परिग्रह-त्याग की पूर्ति के लिए शरीर के सब वस्त्र उतार कर अपना नग्नवेश बनाया, क्योंकि वस्त्र लेने में द्रव्य खर्च करना पड़ता है जिससे फिर माया के चक्कर में आना पड़ता है। दूसरे शारीरिक मोह छोड़ने के लिये शरीर को नग्न रखकर प्राकृतिक सर्दी-गर्मी को सहन करने योग्य बनाया। तीसरे, अपने मानसिक ब्रह्मचर्य का प्रत्यक्ष प्रमाण संसार को कराने के लिये भी उन्होंने वस्त्र पहनना त्याग दिया। उसी नग्नवेश में तपस्या करके उन्होंने मुक्ति प्राप्त की। उनके उसी नग्नवेश को उनके अनुयायी साधुवर्ग ने परम्परा से अपनाया, पश्चात्वर्ती समस्त तीर्थंकर भी नग्न होकर ही साधु बने और अन्त तक नग्न रहे । भगवान् महावीर के बाद सम्राट चन्द्रगुप्त के समय द्वादशवर्षीय अकाल पड़ने के समय कुछ जैन साधुओं ने भोजनचर्या के समय लंगोट पहनना प्रारम्भ कर दिया था। उसके वे अभ्यासी बन गये, जिससे कि विक्रम संवत् की दूसरी शताब्दी में जैन श्रमण संघ दिगम्बर व श्वेताम्बर रूप में विभक्त हो गया। दिशाओं को ही अपना प्राकृतिक अम्बर (वस्त्र) समझकर पहले की तरह नग्न रहकर तपश्चरण करने वाले साधुओं का नाम दिगम्बर प्रख्यात हुआ और श्वेत (सफेद) अम्बर (कपड़े) पहनने वाले श्वेताम्बर कहलाये । जैनेतर उच्चकोटि के साधुओं ने भी दिगम्बर रूप अपनाया है। उपनिषदों के कथनानुसार परमहंस साधु दिगम्बर ही होते हैं । शुकदेव जी नग्न रहते थे, शम्मस आदि कुछ मुसलमान फकीर भी नग्न रहा करते थे। श्री अकलंक देव ने स्तुति करते हुए जिनेन्द्र भगवान् को विश्वपूज्य बतलाने में एक हेतु उनके नग्नरूप को बतलाया है। उन्होंने लिखा है अमृत-कण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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