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अध्यात्म-पुरुष, हे वीतराग !
अध्यात्म-पुरुष
- डॉ० रमेशचन्द्र गुप्त
मानव की ऊर्ध्वमुखी चेतनता के प्रतीक ! आत्मजयी, उपसर्ग-विजेता, निर्विकार । तुमको पाकर केवल कोयलपुर नहीं - विश्व यह धन्य हुआ !
हे अमृत कलश !
युग श्रेष्ठ, तपी ।
तुमको काया का मोहन बिल्कुल छू पाया ! आतप, वर्षा, झंझा में विचलित हुए नहीं, दिक् को तुमने अम्बर माना !
हे दिगम्बरत्व की चरम साधना के ललाट !!
तुम जिन-वाणी के सार्थवाह !
तुमने संस्कृति को सदा-सदा के लिए लिखा, निर्माण किया !
पर्वत पर्वत पर भव्य सातिशय प्रतिमाएँ स्थापित कर दीं ! जो ग्रन्थ समय के कालचक्र में विस्मृत थे
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अपने चिन्तन की गरिमा से तुमने उनका संस्पर्श किया !
हे धर्म ध्वजी !
तुमने विहार, या संघ या कि चातुर्मासों में
इस भारत-भु के श्रमणों को दिव्यामृत उपदेश दिया । जिसने भी उसको सुना
उसी को शांति मिली !
उसको बस ऐसा लगा
कि जैसे तीर्थराज के तट पर आकर, पाप शमन कर डाले हों ! हे समता के आदर्श, समन्वय के साधक !
हे शांतिदूत, हे धर्म-प्राण ! केवल भारत ही नहीं
रसवन्तिका
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विदेशों के अनेक श्रावक भी तुमसेशास्त्रों की चर्चा सुन कर नत शोश हुए !
धर्मों के और विभिन्न मतों या पंचों के प्रेरक आएमानवता का कल्याण सभी का लक्ष्य,
मगर, उन सबने भी,
हे समता के प्रतिरूप !
तुम्हीं से दिशा और संकेत लिया ! इसीलिए दिल्ली की जनता ने तुमको'आचार्य - रत्न' की पदवी ही दे डाली थी ! !
ज्यों पारस को छू कर लोहा सोना बनता, बस, उसी तरह
!
हे कामजयी | युग-कल्याणी ! जिसको भी तुमने शरण लिया,
वह कोलाहल से भरी जिन्दगी में. वैभव को तिनके जैसा समझ !
यहीं पर मुक्त हुआ सब परिग्रहों को छोड़
आत्मचिन्तन में लीन हुआ सहसा !!]
हे मूर्तिमान् तप ! आत्मजयी ! करुणा के पुंजीभूत खोत ! निर्ग्रन्थ! अहिंसा के साधक !! केवल मेरा ही नहीं, सभी का - तव चरणों में है वन्दन ! ये चरण आस्था के प्रतीक ! हे वन्दनीय !
स्वीकार करो यह अभिनन्दन ! स्वीकार करो यह अभिनन्दन !!
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