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________________ ...."दियंबरो यो ण य भोदिजुत्तो, ण यंबरे सत्तमणो विसुद्धो। सप्पादिजंतुप्फुसदो ण कंपो, तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं ॥...' अध सिरिदेसभूसणो पुणरवि तित्थजत्तं गंतुमिच्छदि । मुणिवरेणाणुमदिदो सो एगागी पादचारी गामाणुगामं विहरंतो जादि। रायचुर-गुलमग्गादिणगरेसु जवणमिलिछादिलोगेहिं सो मुणिवरो उवइसिदो उवसग्गिदो य। सिरिदेसभूसणमुणिवरो सव्वं उवसग्गं परमसंतीए सहिदूण पसण्णहिदयेण धम्मोवदेसं कुणदि । तं सुणिदूण सव्वे जणा पच्छादार्वण मुणिवरं बहुमण्णंति । सियादवादकेसरिणा आयरियप्पवरसिरिपायसागरेण तस्स आयरियदिक्खा दिण्णा । आयरियप्प रो सिरिदेसभूषणो समग्गभारहे पादचारी विहरेदि । सज्झायं कादूण सो सिद्धत-सिरोमणी जादो। विविहभासाकुसलेण आयरियवरेण णेगाणि पोत्थगाणि रइयाणि । मधुरवाणीए देसणं कादूण तेण सहस्साधिगाई इत्थीपुरिसाई उद्धरियाई। गठाणेस मणहराई जिणालयाई कारिदूण लोगहिदक्कए आयरिएण धम्मसालापाठसालाविज्जालयमहाविज्जालयाई कारियाई । आयरियस्स जीवणं चिय जणहिदकए अत्थि ।' 'सेट्ठिवर, धण्णो हं ! एरिसस्स महारट्ठसंतस्स दरिसणमहं करेमि।' 'भो महाणुभाव, अज्ज क्खु आयरियप्पवरो जहत्थणामो देसभसणो होदि । सो णिच्चं चिय विस्सधम्मस्स संदेसं दे दि "मित्ती मे सव्वभूदेसु, वरं मन ग केणई।' आचार्यप्रवर श्री देशभूषण प्रो० माधव श्रीधर रणदिवे सातारा 'हे भव्यजन ! आप ही अपने कर्त्ता, विनाशक और विधाता हैं। आप ही अपने मित्र तथा शत्रु भी हैं। जैसे आप भले-बुरे काम करोगे वैसे सुख-दुःख का फल भोगोगे। किए हुए कर्म से मुक्ति नहीं मिलती। कर्म कर्ता के पीछे जाता है । जागिए, प्रमाद मत कीजिए।"झूठ वचन अपकीतिकारक और वैरवृद्धिकारक होता है । भगवान् सत्यरूप है । सत्य स्वर्ग का दरवाजा तथा सिद्धि का सोपान है।"दंभी का तारण धन से नहीं होता । जैसा लाभ वैसा लोभ । लाभ की तरह लोभ बढ़ता है । लोभ सब का नाश करने वाला है। संतोष से लोभ जीतिए। "सब वचन सत्य की तुलना से सापेक्ष हैं। मन का द्वन्द्व और वचन का आग्रह दूर कीजिए। परस्पर दृष्टि जोड़कर समन्वय कीजिए । अनेकान्त स्याद्वाद से समर्थ सम्राट है जो संघर्ष मिटाकर शान्ति प्रस्थापित कर सकता है। "जन्म से न कोई श्रेष्ठ है, न कोई शूद्र । मानव जीवन में नीति-अनीति द्वारा ऊँच-नीच की कसौटी होती है । "सब प्राणी जीवनोत्सु हैं, मृत्युवादी नहीं। सब दण्डशासन से त्रस्त होते हैं। सब को जीवन प्रिय है । अतः जीवन का प्रधान उद्देश्य परमसुख है। धर्म से सुख प्राप्त होता है। अहिंसा परम धर्म है। अहिंसाचारी सकल विश्व ही अपना कुटुम्ब मानता है। प्राणीमात्र से मित्रता कीजिए।..' कालजयी व्यक्तित्व १४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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