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________________ गरु गण लिखा न जाय क्ष ० अनन्तमति माताजी शांतिगिरि (कोथली) परमपूज्य धर्मगुरु आचार्यरत्न १०८ श्री देशभूषणजी महाराज के प्रथम दर्शन का सौभाग्य मुझे बाल्यावस्था में प्राप्त हुआ। मुझ अबोध बालिका को उन्होंने नियमित रूप से देव दर्शन करने की प्रेरणा दी साथ ही 'णमोकार' मन्त्र के मंगल पाठ करने का आशीर्वाद भी दिया । आचार्यश्री द्वारा प्रदत्त धर्मप्रभावना से मेरे बालमन में धर्म के संस्कार उदित हुए । उसी अवसर पर एक एसी घटना भी घटी जिससे आचार्यश्री की धर्मप्रभावना ने मेरे मन में अत्यन्त गहरी छाप छोड़ दी। हमारे प्रान्त जिला धुलिया में आचार्यश्री एक सिद्ध पुरुष के रूप में स्मरण किए जाते हैं । आपकी वचनसिद्धि एवं आशीर्वाद से एक मुसलमान भाई फांसी के दण्ड से बच गया। इससे आचार्यश्री के प्रति मेरी भक्ति बढ़ती गई । सन् १९६६-६७ के लगभग जब मैं दस या बारह वर्ष की थी आचार्यश्री ने धुलिया ग्राम में धर्मप्रवचन किए। तभी मेरे मन मे विरक्ति का भाव जाग्रत हुआ। तभी मैंने श्री मन्दिर में जाकर आजीवन अविवाहित रहने का प्रण कर लिया। आचार्यश्री द्वारा प्रणीत साहित्य को पढ़ने से मेरे मन में दीक्षा ग्रहण करने का भाव उत्पन्न हुआ । सन् १९७२ की जनवरी २२ को जयपुर खंजाची जी की नशिया में मैंने परमपूज्य आचार्यश्री के पावन चरणों में अपने मनोभाव प्रकट किए और आचार्यश्री ने मेरे आत्मोद्धार के लिए मुझे क्षुल्लिका दीक्षा से अनुग्रहीत किया। एक क्षुल्लिका के रूप में आचार्यश्री के धर्म संघ से मेरा चौदह वर्ष का सम्बन्ध रहा है । इस अवधि में अनुभूत आचार्यश्री के अनन्त गुणों का वर्णन करने में मैं असमर्थ हूं। कतिपय रोचक अनुभवों को निवेदित करना चाहगी। सन् १९७२ में जयपुर से देहली की ओर प्रस्थान करते हुए कुछ अबोध बालकों ने मुनि संघ की तरफ रेवाड़ी के निकट छोटेछोटे पत्थरों से आक्रमण किया। उसी समय अचानक वहां कुछ गाएँ आयीं और पत्थरों की मार से व्याकुल होकर बच्चों की तरफ दौड़ने लगीं। सभी बच्चे अपने-अपने घर चले गए और पूज्य आचार्यश्री जी ससंघ पदयात्रा करते हुए महानगरी देहली में सकुशल पहुंच गए। बुंदेलखण्ड की यात्रा के अवसर पर पनागर नगर में एक ब्राह्मण के घर में एक सर्प का निवास था। वह सर्प ब्राह्मण से मनुष्य की भाषा में वार्तालाप किया करता था। एक दिन सर्पराज ने ब्राह्मण से अनुरोध किया कि एक माह पश्चात् इस मार्ग पर से परमपूज्य धर्मविभूति आचार्यरत्न श्री देशभूषण का विहार होगा। उस सर्प ने ब्राह्मण को यह प्रतिज्ञा भी करायी कि वह उसको महाराज श्री के दर्शन करा देगा । पनागर नगर में महाराज का मंगल आगमन हुआ तब ब्राह्मण - लोक भय से सर्प को महाराजश्री के दर्शन नहीं कराये । ब्राह्मण द्वारा वचन भंग किये जाने से सर्पराज कुपित हुआ और उसने अपना रोष प्रकट करने के लिये ब्राह्मण के शरीर को लपेट लिया । ब्राह्मण धवड़ा गया और उसने तत्काल सर्प को आचार्य के चरणों में पहुंचकर दर्शन की अनुमति मांगने का वचन दिया। आचार्यश्री के सम्मुख वह ब्राह्मण उपस्थित हुआ, किन्तु बड़ी संख्या में जनसमुदाय को देखकर अपना विनम्र निवेदन करने से पूर्व ही वापस चला गया । लौटकर उसने सर्पराज को वस्तुस्थिति से परिचित कराया और अगले दिन प्रातःकाल आचार्यश्री वन्दना को जाते समय अपने घर की छत पर से दर्शन कराने का वचन दिया । आचार्यश्री ब्राह्मण के घर के आगे से वंदनार्थ निकले और नागदेवता ने मकान की छत पर से अध्यात्मपुरुष, धर्मध्वजा, आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज के श्रद्धा से दर्शन किये। उसी समय पूज्य आचार्यश्री एवं नागराज की आंखों का अनायास आमना-सामना हो गया। सर्प का प्यार से लालन-पोषण करने वाले ब्राह्मण ने जबलपुर के पास मढ़िया जी में यह वृत्तान्त सुनाया । सिद्धपुरुष आचार्यश्री को घटना की वास्तविक जानकारी थी, किन्तु, ख्याति, लाभ, मान-सम्मान इत्यादि से निःस्पृह रहने के कारण उन्होंने संघ के किसी भी व्यक्ति को इस सम्बन्ध में कुछ नहीं बताया। सर्प का पालन करने वाले ब्राह्मण की मनोगत व्यथा का अवलोकन करते हुए महाराजश्री ने ब्राह्मण को बतलाया कि वह सर्प अब अपनी पर्याय से मुक्ति पा चुका है और अच्छी पर्याय में पहुंच गया है। ___ संघ में रहते हुए मुझे सदा यह अनुभूति हुई है कि मेरे शरीर में जब कभी कोई रोग-व्याधि अथवा पीड़ा उत्पन्न हो जाती तो वह महाराजश्री के दर्शन एवं आशीर्वाद के उपरान्त तत्काल शान्त हो जाती है। पूज्य आचार्यश्री के सान्निध्य में रहकर मुझे भारतवर्ष दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्रों एवं धर्म के स्वरूप को समझने का एक अभूतपूर्व अवसर मिला है। उनके महान् ऋण मुझमें समाहित हो गये हैं। मैं नहीं जानती कि पूज्य गुरुदेव के असंख्य ऋणों से कैसे मुक्त हा जा सकता है ? 'आस्था और चिन्तन' नामक ग्रंथ के प्रकाशन के अवसर पर पूज्य गुरुदेव के चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए मैं स्वयं को बहुत भाग्यशाली मानती हूं। परमपूज्य आचार्य रत्न १०८ श्री देशभूषण जी महाराज के चरण कमलों में सिद्ध, श्रुत, आचार्य भक्तिपूर्वक त्रिकाल नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु । 'कालजयी व्यक्तित्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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