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भक्तवत्सल एवं विनोद प्रिय
राग-द्वेष से शून्य, अन्तरंग से निर्मल, तपश्चर्या से देदीप्यमान एवं परोपकार के प्रति कर्त्तव्यरत परमपूज्य आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज वर्तमान काल के महान् साधक, परम समाजोद्धारक एवं युगद्रष्टा आचार्य हैं । जैन धर्म संघ के इतिहास में बीसवीं सदी का यह सौभाग्य ही है कि उसने एक ऐसी विभूति को जन्म दिया जिसने आत्म-साधना के पथ पर अग्रसर होते हुए भी नगर-नगर, ग्राम-ग्राम में जैन मन्दिरों की ध्वजा फहराई, जैन साहित्य साधना को नवीन आयाम दिए और जनकल्याण समाज सुधार, स्वास्थ्य एवं शिक्षा की गतिविधियों को प्रोत्साहित किया। जैन धर्म प्रभावना को समाजोन्मुखी दिशा प्रदान करना आचार्यश्री की एक महत्त्वपूर्ण देन है जिसे जैन धर्म संघ के इतिहास की एक अविस्मरणीय विशेषता के रूप में मूल्यांकित किया जाएगा। अन्य धर्मो के प्रति सहिष्णुभाव से मुखरित आचार्यश्री ने जैन धर्म को सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक सन्दर्भों में प्रस्तुत किया है जिससे जैन धर्म को विश्व ख्याति अर्जित हुई है ।
आचार्यश्री की वक्तृत्व शैली अत्यन्त मधुर एवं अभिव्यञ्जनापूर्ण है विनोदप्रियता आपके स्वमान का अभिन्न अंग है । इस सम्बन्ध में दिल्ली चातुर्मास की एक घटना याद आती है जब स्थानीय धार्मिक लीला कमेटी की ओर से रावण का अभिनय करने वाला सत्यप्रकाश नामक व्यक्ति आचार्यश्री के दर्शनार्थ आया। हाव-भाव और डील-डौल से रावण जैसे लगने वाले सत्यप्रकाश को आचार्यश्री ने देखा तो चुटकी लेते हुए बोले- भाई ! रावण आया है इसे लड्डू खिलाओ। तभी दस किलो के लड्डुओं का थाल रावण के आगे रख दिया गया और आचार्यश्री ने सत्यप्रकाश से कहा, भाई ! अगर असली रावण हो तो इन सभी लड्डुओं को खा कर दिखाओ ! आखिर रावण की शान का सवाल है ! इस घटना से सभी उपस्थित लोग ठहाके मार कर हंसने लगे। ऐसे ही एक बार लाला मदन लाल घन्टे वाले आचार्यश्री के दर्शनार्थ पारे । आचार्यश्री ने तपाक से उपस्थित लोगों से कहा, भाई ! घन्टे वालों की मिठाई बड़ी मशहूर है, जिसने नहीं खाई तो चलो फिर क्या था ! बेचारे घन्टेवाले जल्दी से दुकान गए और ढेर सारी मिठाई वहां उपस्थित लोगों को खिलाने के लिए ले आए ।
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वैद्य प्रेमचन्द जैन सहायक मन्त्री, आ० देश० अभि० ग्रन्थ समिति
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आचार्यश्री एक कुशल प्रशासक एवं दयालु प्रवृत्ति के निःस्पृह योगी है प्रेस कर्मचारियों, धर्मशाला के कार्यकर्ताओं जमादार, पोस्टमैन आदि को पुरस्कार आदि देकर सदैव प्रोत्साहित करते रहे हैं। किसी व्यक्ति की निजी समस्या का समाधान ढूंढने में वे तत्पर रहते हैं । एक बार एक कर्मचारी का सामान चोरी हो गया तो उन्होंने तुरन्त किसी श्रावक को कहकर उसकी पूर्ति करवा दी। पं० राजकुमार की कन्या का विवाह आचार्यश्री ने बड़ी धूमधाम से करवाया और पारसदास मोटर वाले को यह भी संकेत देकर कहा कि कुछ पीले जेवरों अर्थात् सोने के जेवरों की भी व्यवस्था करो । एक बार की घटना है कि दिल्ली की धर्मशाला में दक्षिण भारत से तीन बसें भरकर लगभग १५० व्यक्तियों की भीड़ आचार्यश्री के दर्शन हेतु अचानक पहुँच गई। उनके भोजन की व्यवस्था को तुरन्त करना कठिन था । आचार्यश्री ने श्रावकों से कहा कि दिल्ली वालों की शान का सवाल है, इनके भोजन की व्यवस्था करो। बस फिर तो आधे घन्टे के भीतर खाने-पीने की सामग्री जुट गई और मेहमान लोगों के भोजन की व्यवस्था हो गई ।
मुझे आचार्यश्री द्वारा संस्थापित ट्रस्ट के कार्य को देखने का सौभाग्य मिला है। अनेक पुस्तकों के मुद्रण कार्य को मैंने निर्वाहित किया। एक घटना याद आती है जब सम्राट प्रेस के मालिक नारायणसिंह को मुद्रण कार्य के १००१ रुपये देने थे और भूलचूक में १०००१ रुपये उनके पास चले गए । बाद में पता चला और आचार्यश्री से मैंने अपनी भूल का निवेदन किया तो बोले कोई बात नहीं, शेष रुपये वापस आ जाएंगे। आचार्यश्री का यह कहना ही था कि सम्राट प्रेस के मालिक आ गए और फालतू रुपये वापस
कर गए ।
आचार्यश्री की व्यवहार कुशलता की जितनी प्रशंसा की जाए वह कम ही है परन्तु उन्होंने किसी भी कार्य में व्यक्तिपरक भाव से कभी कोई रुचि नहीं ली और न ही कोई ममता या रागवृत्ति को जोड़ा। धर्मप्रभावना एवं जनकल्याण की भावना से प्रेरित उनकी योजनाओं को स्वयं ही दिशा मिलती जाती है और कार्य स्वयमेव सिद्ध हो जाते हैं। ऐसे महान् योगी के चरणों में नतमस्तक होकर मैं अपनी नमोsस्तु अर्पित करता हूँ ।
कालजयी व्यक्तित्व
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