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धर्ममूर्ति आचार्यश्री
श्री महताब सिंह जैन जौहरी पंच, प्राचीन श्री अग्रवाल दिगम्बर जैन पंचायत, दिल्ली
प्राचीन काल में जिस प्रकार तेजस्वी लोककल्याणकारी साधु विहार करते थे, आज भी इसी परम्परा में आचार्यरत्न भारतगौरव विद्यालंकार १०८ श्री देशभूषण जी महाराज हैं जो अपने पावन विहार से निरन्तर जनसाधारण में ज्ञान और चारित्र की ज्योति जगा रहे हैं।
आचार्य महाराज ऐसे ही तेजस्वी योगी दूरदर्शी और विचक्षण साधु हैं। उनका हृदय चक्रवर्ती के समान विशाल और उदार है। वे बड़े साहसी और दूरदर्शी हैं। धर्मप्रभावना के लिए प्राप्त हुए अवसर की प्रतीक्षा करते रहते हैं। उनमें धर्म प्रचार की अद्भुत लगन है । दिल्ली में जब विश्व धर्म सम्मेलन हुआ तब महाराज मथुरा में थे । मथुरा दिल्ली से ८८ मील दूर है । सम्मेलन की तारीख अति निकट थी। ऐसे अवसर पर कोई भी पद यात्री कदापि नहीं आ सकता था। परन्तु महाराज जी को देखो, उनमें धर्म प्रभावना की कैसी उत्कट लगन थी। ८८ मील का लम्बा मार्ग तीन दिन में पूरा करके चौथे दिन ज्यों ही सूर्य की किरणें फैली, सारा दिल्ली नगर महाराजश्री का स्वागत करने के लिए दिल्ली गेट के बाहर उमड़ पड़ा। क्या बालक, वृद्ध, युवा, स्त्रियाँ और वृद्धायें महाराज के स्वागत के लिए बाट जोह रही थीं। सभी के मन में यह आश्चर्य था कि महाराज इतनी शीघ्रता से कैसे आ सके। यह उनकी धर्म प्रभावना की इच्छा का अलौकिक उदाहरण था।
महाराज अत्यन्त लोकप्रिय हैं । हर एक से व्यक्तिगत सम्पर्क रखते हैं। सबको अपना मानते हैं। जो उनके सम्पर्क में आ गया फिर उसे भूलते नहीं। महाराजश्री बड़े तीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी हैं। सदैव ज्ञान की तरफ रुचि बनाए रखते हैं। १.४ डिग्री बुखार में भी ग्रन्थ निर्माण के कार्य में लगे रहते हैं। उनमें संस्कृति के उद्धार की अद्भुत लगन है। वे बड़े निर्भीक नि:शंक और साहसी हैं। तीर्थराज सम्मेदशिखर की रक्षा के लिए वैशाख की तीव्र दुपहरी में अयोध्या से दिल्ली पधारे और उपवास करने का संकल्प कर लिया। परन्तु सबके सहयोग और महाराज की तपस्या से कार्य सरल बन गया और माननीय गृहमन्त्री जी ने आश्वासन दिया तब उपवास करने का संकल्प छोड़ दिया। वे धार्मिक कार्यों को प्रोत्साहन देना अपना कर्त्तव्य समझते हैं । बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ स्थापित करना, वेदी प्रतिष्ठा, पंचकल्याणकों में सम्मिलित होना, सारे भारत में विहार करके समाज में धर्म की ज्योति जगाना अपना नैतिक धर्म समझते हैं। कोल्हापुर और अयोध्या में ३२ फुट की मूर्ति स्थापित कराना महाराजश्री की ही लगन का फल है। जैन संस्कृति के इतिहास में उनका नाम अमर रहेगा।
शास्त्रों में सल्लेखना का बड़ा महत्त्व है। दिल्ली में अनेक ऐसे व्यक्ति जो धार्मिक और कर्त्तव्यपरायण थे, उनकी मृत्यु के अवसर पर उन्हें सम्बोधना, धर्म रुचि जागृत करना महाराज की आन्तरिक निर्मलता का ही द्योतक है, जो पहले से ही उन्हें चेतावनी देकर उनका परलोक सुधार दिया । आपने देश पर पाकिस्तानियों द्वारा आक्रमण करने पर लाल मन्दिर जी में बृहत् शांति विधान किया। फलस्वरूप शत्रु परास्त हुआ और भारत की विजय हुई ।
. महाराज संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, मराठी, गुजराती, कनड़ी आदि अनेक भाषाओं में पारंगत हैं । दक्षिणी साहित्य का राष्ट्रभाषा में अनुवाद करना महाराजश्री का ही कार्य है। उनकी आत्मिक शक्ति के कारण उन्हें वचनसिद्धि हो गई है। वे परिषहजयी और तेजस्वी महान् साधु हैं। कर्नाटक से दिल्ली आते समय सर्प द्वारा काटा जाना और फिर निर्विष हो जाना असाधारण बात है। दिल्ली जैन समाज के ऊपर महाराज की बड़ी अनुकम्पा है। उनका यहां आठ बार चातुर्मास हो चुका है। वे चाहते हैं कि यहाँ के बहन-भाइयों में धर्म रुचि जग जाय तो धार्मिक कार्य सरल हो जाएंगे। क्योंकि यह केन्द्र है, यहाँ राजधानी है, यहां राजनैतिक नेता निवास करते हैं। उनकी धार्मिक भावनाओं का प्रभाव जनसाधारण पर अति शीघ्र पड़ता है। उन्हें धर्म की ओर आकर्षित करने के प्रति भी महाराज की बड़ी रुचि है। महाराजश्री सम्यक्त्व के आठ अंगों का प्रचार करने में निरन्तर प्रयत्नशील रहते हैं । निःसंदेह सम्यक् श्रद्धा ज्ञान चारित्र विभूषित प्राणी का जीवन ही सफल है।
महाराज के चरणों में जो मेरी अनन्य भक्ति है उसका कारण महाराज का देदीप्यमान धर्म का रूप है । वे धर्म की साक्षात् मूर्ति हैं । हमारी श्री जिनेन्द्र देव से प्रार्थना है कि महाराजश्री दीर्घायु हों और जनसाधारण में रत्नत्रय की वृद्धि करते हुए निर्वाण लक्ष्मी के अधिकारी बनें।
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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