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________________ श्रावक सद्कर्म करता रहे श्री अजितप्रसाद जैन (पीतल वाले) परमपूज्य आचार्यरत्न श्री देश भूषण जी महाराज ने राजधानी में पहली बार अपने मंगल-प्रवेश के अवसर पर मेरे घर के निकट श्री दिगम्बर जैन नये मंदिर जी की निकटवर्ती पंचायती धर्मशाला को अपने गौरवमण्डित चरणों से पवित्र किया था। इस नकट्य का लाभ उठा कर मैं प्रतिदिन पूज्य महाराज के दर्शन को दो या तीन बार धर्मशाला में जाया करता था। तपोमूर्ति आचार्य महाराज साधना में रत रहते हुए निरन्तर स्वाध्याय एवं मंगल-प्रवचन से आत्म-कल्याण एवं पर-कल्याण में संलग्न रहते थे। कन्नड़ भाषा के ग्रन्थों का निरन्तर अध्ययन, अनुवाद एवं सम्पादन का कार्य चलता रहता था । पूज्य आचार्यश्री की कठोर साधना एवं तपश्चर्या का मेरे जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा और मैं हृदय से उनके पावन श्रीचरण में नत-मस्तक हो गया। पूज्य आचार्यश्री जिस समय आहार की विधि को जाते थे, उस समय मैं भी श्रद्धा से चौके लगाया करता था। मेरे घर में चौके लगने के कारण धार्मिक वातावरण ही बन गया था। पूज्य आचार्यश्री का कई दिनों के उपरान्त मेरे यहां आहार हुआ और मैं अपनी कुटिया में उनके श्रीचरण का प्रवेश पाकर अपने को गौरवान्वित अनुभव कर रहा था । आहार के उपरान्त पूज्य महाराजश्री परिवारजन एवं अन्य उपस्थित सज्जनों को धर्मोपदेश दिया करते थे और शंका-समाधान भी किया करते थे। मैंने महाराजश्री से निवेदन किया कि महाराजश्री आपकी आहारयात्रा के समय सबसे पहले मेरा घर पड़ता है, किन्तु इतने दिनों के बाद मुझे यह सौभाग्य किस प्रकार से प्राप्त हुआ ? आपने यह अनुकम्पा पहले क्यों नहीं की? आचार्यश्री ने मंद-मंद मुस्करा कर कहा कि मुनि एवं श्रावक, दोनों को ही अपने-अपने धर्म और कर्तव्य का पालन करना चाहिए। जिस प्रकार से दुकानदार अपनी दूकान को सजा कर रखता है और दूर-दूर की सामग्री एकत्र करता है और ग्राहक के आने की निरन्तर प्रतीक्षा किया करता है और जब ग्राहक आ जाता है, तब वह अपने को सफल मानता है। इसी प्रकार श्रावक को अपना दनिक कार्य नियमपूर्वक करना चाहिए । यह अलग बात है कि उसे फल की प्राप्ति कब होती है। यह निश्चित है कि धार्मिक अनुष्ठान करने वाले करुणाशील श्रावकों को अपने-अपने कृत्यों का निश्चित रूप से फल मिलता है। इसके उपरान्त उन्होंने परिवार के बालकों में रुचि का प्रदर्शन करते हुए सबके बारे में आवश्यक जानकारी एकत्र की। उन्होंने बताया कि थोड़े ही समय उपरान्त अयोध्या के अन्दर पंच कल्याणक-प्रतिष्ठा का आयोजन किया जाएगा। उसमें इन नन्हे-मुन्ने बालकों को संगीत, नृत्य आदि दिखा कर सभा-मण्डप में अपना भक्तिप्रदर्शन करना चाहिए । उनकी पावन वाणी एवं प्रेरणा ने बच्चों के मन को अभिभूत कर दिया और वे नृत्य-संगीत का अभ्यास करने लगे और उन्होंने अयोध्या जी की पंच-कल्याणक प्रतिष्ठा में अपना कार्यक्रम प्रस्तुत किया । वास्तव में आचार्यश्री का पावन उद्बोधक उपदेश धर्म पर चलने की प्रेरणा देता है और मैं तो यह स्वीकार करता हूं कि उनके सान्निध्य ने ही मेरा हर प्रकार से विकास एवं मार्ग-दर्शन किया है। उनके चरणों में अनेकानेक नमोऽस्तु करते हुए उनके स्वस्थ एवं दीर्घ जीवन की निरन्तर मंगल कामना करता हूं। निर्भीक और मार्मिक वक्ता श्री मांगीलाल सेठी 'सरोज' आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज के दर्शनों का सौभाग्य मुझे दिल्ली में मिला था। आपकी सरल शान्त सौम्य मुद्रा निरख कर एक अनुपम आकर्षण की अनुभूति हुई। हृदय भक्ति से गद्गद् हो गया । आप जैसे महान तपस्वी, आगम ज्ञान निष्णात्, सप्त भाषा के ज्ञाता, प०पू० १०८ स्व० आचार्यश्री शान्तिसागर जी की परम्परा के सुयोग्य निर्वाहक, निर्भीक मार्मिक वक्ता, परमहंस योगीराज के कारण जैन समाज अपनी श्रमण संस्कृति के लिए जितना गर्व करे, थोड़ा है। त्याग के साथ विद्वत्ता का सद्भाव आज के इस भौतिक युग में परमावश्यक है जिससे विनाश के कगार पर खड़े अशान्त विश्व के कल्याण के लिए विज्ञानसम्मत जैन सिद्धान्त रूपी संजीवनी बूटी का महत्त्व देशी-विदेशी विद्वान् अनुभव कर सकें । आचार्य महाराज की इस ओर सक्रियता को नकारा नहीं जा सकता । आचार्य महाराज शताधिक आयुष्मान् होकर ज्ञान की अविरल धारा निरन्तर प्रवाहित करते रहें जिससे भव्यजनों को आत्महितकर मार्गदर्शन मिलता रहे । श्री वीर प्रभु से इसी प्रार्थना के साथ ऐसी अनुपम विभूति के चरणों में श्रद्धापूरित हृदय से बारम्बार नमस्कार करता हूं। कालजयी व्यक्तिस्व १२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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