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________________ सन्त शिरोमणि परम गुरुदेव पं० यतीन्द्रकुमार वैद्यराज श्री आचार्य कुन्दकुन्द ने 'भाव पाहुड़' में लिखा है--"पंचविह चेलचायं खिदि सयणं दुविह संजमं भिक्खु भावं भाविय पुव्वं जिण लिंगं णिम्मलं सुद्धम्" अर्थात् पांच प्रकार के (रेशमी, सूती, ऊनी, चमड़ा, वृक्ष) वस्त्रों का त्याग, भूमि पर शयन, दोनों प्रकार का संयम, भिक्षा से भोजन, पूर्णता के साथ आत्मश्रद्धा-यही निर्मल जिलिंग है। श्री १०८ विद्यालंकार श्री देशभूषण जी महाराज ऐसे ही दिगम्बर जिनलिंग के धारी हैं । आप सही अर्थों में देश के भूषण हैं और स्वार्थ-त्याग पूर्वक समता भाव से साधना कर रहे हैं। आप ऐसे महापुरुष हैं जो युवाकाल में ही संन्यास ग्रहण करके भगवान महावीर के सच्चे अनुयायी बनकर लगभग ५५ वर्ष से निरतिचार मुनिव्रत की सतत साधना में लवलीन हैं। राजनैतिक, औद्योगिक, सामाजिक हर वर्ग के लोगों को आपने प्रभावित किया है । वर्षों देश की राजधानी देहली में रहकर जैन धर्म की प्रभावना के अनेक कार्य किये हैं। भारत के कोने-कोने में पदयात्रा करके आपने श्रमण संस्कृति का अलख जगाया है और कई उपसर्गों को जीतकर अचल रहे हैं। अनेक मुमुक्षुओं को उनकी योग्यता के अनुसार मुनि, ब्रह्मचारी, क्षुल्लक, एलक के पदों की दीक्षा देकर साधना के मार्ग पर आरूढ किया है। जैन धर्म को विश्व धर्म के तुल्य उद्घोषित करने वाले राष्ट्र के प्रखर सन्तप्रवर श्री एलाचार्य विद्यानन्द जी महाराज आप के सुयोग्य शिष्य हैं। अध्यात्म क्षेत्र में गुरु की यही कामना रहती है कि शिष्य महान् बने। आज राष्ट्रसन्त के पद से विभूषित होने वाले प्रखर प्रतिभा के धनी अपने श्रेष्ठ शिष्य के द्वारा सम्पन्न हो रहे जैन धर्म की प्रभावना के लोक-मंगल कार्यों को देखकर महाराजश्री को आनन्दानुभूति होती है। अनेक तीर्थ क्षेत्रों के विकास तथा जीर्णोद्धार में भी महाराज की प्रेरणा रहती है । अयोध्या जैसे प्राचीन क्षेत्र को आधुनिक महत्त्व प्रदान करने के पवित्र उद्देश्य से वहां भगवान् ऋषभदेव की ३२ फुट ऊंची मनोज्ञ प्रतिमा की स्थापना में आपका प्रयास बहुत सराहनीय रहा है। निर्ममत्व होकर भी वात्सल्य तथा करुणा भाव आचार्यश्री के आचरण में पग-पग पर दिखाई देता है। यही कारण है कि कोई भी छोटा या बड़ा व्यक्ति महाराजश्री के समीप पहुंचकर शांति और प्रसन्नता का अनुभव करता है। आज जैन समाज के सामने दो प्रकार की समस्याएँ विक्षुब्धता का वातावरण बना रही हैं। सर्वप्रथम तो भावी पीढ़ी के कर्णधार युवक वर्ग में धर्मसाधन के प्रति बढ़ता हुआ प्रमाद दृष्टिगत हो रहा है। धार्मिक क्रियाओं एवं आस्थाओं, संयम, आचरण की उनमें शिथिलता है । मर्यादा का उल्लंघन, पश्चिमी प्रभाव से भोगों के प्रति अभिरुचि तथा अर्थसंचय की गद्धता धर्म के प्रति उदासी बढ़ा रही है। दूसरे, समाज को चुनौती प्राप्त हो रही है तथाकथित अध्यात्मवादी लोगों की ओर से, जो संयम तथा संयमी, त्यागी, तपस्वी, महापुरुषों की अवहेलना करते हैं। प्रत्येक हितकारी धार्मिक क्रिया को हेय मानते हैं; चार अनुयोगों में से केवल द्रव्यानुयोग का आश्रय लेकर निश्चय एकान्त का पोषण करते हैं; पुण्य का फल तो चाहते हैं पर गृहस्थ अवस्था में ही पुण्य को हेय कहते हुए दिगम्बर ऋषियों का मखौल उड़ाते हैं। इस संकटमय वातावरण में हम सब का ध्यान रत्नत्रय के परम आराधक, विद्यालंकार, चारित्रचूड़ामणि, अनेकान्त के प्रवक्ता, आचार्य परम्परा के रक्षक श्री आचार्य देशभूषण जी जैसे महान् पुरुषों की ओर जाता है जो अपने प्रखर तप तेज के प्रभाव से सही दिशा में जैन जगत् का आध्यात्मिक नेतृत्व कर रहे हैं। सन्तों का जन्म संकटों से उबार कर सन्मार्ग पर प्रवृत्ति कराने के लिए ही होता है । कबीर साहब ने ठीक ही कहा था "आग लगी आकास में, झर-झर परें अंगार ! संत न होते जगत् में, तो जल जाता संसार ।।" ऐसे महान् सन्त गुरुदेव के चरणों में सादर प्रणाम । कालजयी व्यक्तित्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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