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परमकारुणिक आचार्यश्री
श्री अजितप्रसाद जैन ठेकेदार उपाध्यक्ष, आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रंथ समिति
आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज के दर्शन का सर्वप्रथम सौभाग्य मुझे सन् १९५४ में जयपुर में मिला। दिव्य आभा से मंडित उनके मुखमंडल की निर्मल कांति से मैं संमोहित सा हो गया। ऐसा लगा कि जिस अध्यात्म के बारे में मैं सुनता आया था उसके आज साक्षात् दर्शन हो गए। तदनन्तर सन् १९५५ में आचार्यश्री का दिल्ली में चातुर्मास सम्पन्न हुआ। मुनि सघ समिति के एक सेवक के रूप में आचार्यश्री के चरणों का सान्निध्य मुझे प्राप्त हुआ । लोककल्याण और धर्मप्रभावना के प्रयोजनों से प्रेरित होकर आचार्यश्री मुनि संघ समिति को समय-समय पर आवश्यक निर्देश दिया करते थे। तब मुझे ऐसा लगा कि धर्मप्रसार को जन-जन तक पहुंचाने में आचार्यश्री कितने आतुर हैं। उनकी प्रेरणा से धनसम्पन्न श्रावक लोककल्याण सम्बन्धी कार्यों में उदारता से जुट जाया करते हैं । आचार्यश्री के व्यक्तित्व की यह एक उल्लेखनीय विशेषता रही है ।
धर्मनिष्ठ भावकों के प्रति आचार्यश्री की महान अनुकम्पा रहती आई है। धावकों के हित सम्पादनार्थ तथा उनमें धर्म को प्रेरणाओं को नियोजित करने में उनकी भूमिका 'परमकारुणिक' से कम नहीं थी। इस अवसर पर मुझे अपने पिता श्री महावीर प्रसाद जैन, ठेकेदार के अन्तिम समय का स्मरण हो आता है। मेरे पिता जी की हार्दिक इच्छा थी कि उनका अन्तिम समय आचार्यश्री की धर्म प्रभावनाओं से कृतार्थ हो । आचार्यश्री परमवात्सल्य भाव से अनुप्रेरित हो मथुरा के निकट पलवल से दिल्ली वापिस पहुंचे और उनके पावन सान्निध्य और धर्म सम्बोधना से मेरे पिता जी का जीवन अनुगृहीत हुआ । और अन्य ऐसी अनेक घटनाएं हैं जिनसे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि आचार्यश्री कितने भक्त वत्सल हैं ।
मैं उनकी आदर्श दिगम्बरी साधना के ५१ वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में उनके चरणश्री की भावसहित वन्दना करते हुए उनके दीर्घ आयुष्य की कामना करता हूं ।
चारित्र शिरोमणि
परम पूज्य योगेन्द्र चूड़ामणि, योगेन्द्र सम्राट्, शान्तिदूत, भारतगौरव, विद्यालंकार, अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी, परम दयालु,
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वात्सल्यमूर्ति सम्पनत्व बूडामणि चारित्रशिरोमणि, प्रातःस्मरणीय स्वस्ति श्री आचार्यरन १०८ श्री देशभूषण महाराज जी के चरण कमलों में शतशः नमोऽस्तु ! नमोऽस्तु !! नमोऽस्तु !!!
गुरुदेव के गुणों का वर्णन करना सूरज के सामने जुगुनू को दिखाने के समान है फिर भी भक्तिवश और उपकार स्मरण के आग्रह से हम यह कह सकते हैं कि हमारे जैसे पूर्ण अज्ञानी जीव को मनुष्य बनाने का श्रेय एकमात्र आचार्यश्री जी को ही जाता है । जिस प्रकार पारस मणि का स्पर्श पाकर लोहा भी सोना बन जाता है, उसी प्रकार हम भी गुरुदेव के सान्निध्य में आकर धर्म संस्कारों के द्वारा आज मनुष्य बन सके हैं। हमें हिताहित का कुछ भी ज्ञान नहीं था। अपनी उम्र के 8 वें वर्ष से ही गुरुदेव का सान्निध्य मिला । उनके द्वारा समारोपित संस्कारों से आज हम अपने गांव में, समाज में तथा साधु-संतों की दृष्टि में एक विशिष्ट स्थान को प्राप्त हुए हैं। गुरुदेव के गुणों का वर्णन सहस्र जिह्वाएं भी नहीं कर सकती हैं और उनके चरणकमलों की सहस्रों भवों तक सेवा करते रहने पर भी हम उनके उपकार से उऋण नहीं हो सकते हैं। कहा भी है
श्री जिनगौडा जग्गौडा पाटिल ( सदलगा )
सात समुन्दर मसि करूँ, लेखनि सब बनराय । सब धरती कागद करू ं, गुरु गुण लिखा न जाय ॥
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गुरुदेव के संस्कारों से ही हमारे हृदय में आज वह शक्ति आयी है कि धर्म, देवशास्त्र और गुरुओं के ऊपर यदि कोई आपत्ति आ जाए तो हम अपनी जान की बाजी भी देने को तत्पर हैं। धर्म पर दृढ़ रहने की शिक्षा भी इन्हीं आचार्यश्री जी ने दी है— ध्यानमूलं गुरोर्मूतिः पूजामूलं गुरोः पदम् मन्त्रमूलं गुरोर्वा मोक्षमूलं गुरोः कृपा ॥
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गुरुदेव की मूर्ति ही ध्यान का मूल कारण है, गुरु के चरण कमल ही पूजा के मूल कारण हैं। गुरु की वाणी ही कारण है और गुरुदेव की कृपा ही मोक्ष प्राप्ति का मूल कारण है । इसलिये ऐसे गुरुदेव की कृपा हमारे बनी रहे और उनका आशीर्वाद हमें मिलता रहे। ऐसे गुरुदेव के आयु-आरोग्य हमेशा वृद्धिगत होवें वीर प्रार्थना करते हैं और अपनी शुभकामनाएं गुरु चरणों में समर्पित करते हैं।
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जगत् के संपूर्ण मंत्रों का मूल ऊपर भव भवान्तरों में सदैव प्रभु के चरणों में यही सतत
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आचायरल भी देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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