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उसका पूरा उखड़ जाना ही श्रेयस्कर है । अतः दूसरी बार वह पाषाण पट्टिका चुपचाप कब उखाड़कर फेंक दी गई, इसका किसी को कुछ 'पता नहीं चला !
यह घटना तो मंगलाचरण था आचार्यरत्न की भावना को मूर्तवन्त करने का, जिसकी कल्पना उन्होंने गुरुकुल की नींव में संजोयी थी। गुरुकुल के हम सभी बालक उस नींव के पत्थर की भाँति अनाम और अदृश्य होकर पड़े हुए थे और अपनी निर्बल बाहुओं में फौलाद बाँधे हए गुरुकुल के उन्नत शिखर पर चमकते कंगूरे देखना चाहते थे और इस प्रकार हम आचार्यश्री की धर्मवृद्धि रूप मंगल भावना के अर्ध्य बन गये थे। इन अन दिखे नींव के जीवन्त पत्थरों को अवध प्रान्त की जैन समाज ने अपने हाथों सहलाया था। स्वर्गीय लाला उल्फतराय टिकैतनगर वालों की वे ममतामयी यादें आज मानस पटल पर एक संवेदनशील उद्रेक पैदा कर देती हैं। हम सभी के प्रति उनके हृदय में मां-बाप जैसा प्यार भरा था। जब भी वे वन्दनार्थ तीर्थराज पर आते तो साथ में एक बड़ी टोकरी में मिठाई भर लाते और मिठाई के साथ-साथ प्यार-मुस्कराहट की मिठास भी लुटाते जाते थे । यदि ठण्ड में सिकुड़ते छात्रों को देखते तो लालाजी कहते तो कुछ नहीं थे, बस मन में बालकों का अभाव देखकर दूसरे माह थोक में सिले हुए कोट भेंट कर जाते ।
इस प्रकार गुरुकुल की हर गतिविधि में आचार्यश्री का नाम मन्त्र की भाँति जुड़ा हुआ था। मैं नाम की शक्ति को व्यक्ति से ज्यादा प्रभावशील मानता हूं। सागर का तटबन्ध बाँधते हुए राम नाम लिखे पत्थर सागर में तैरने लगे थे और उनसे सेतु बाँधकर राम की सेना लंका पहुंच गई थी । यह राम से ज्यादा उनके नाम का ही महत्त्व था । ठीक ऐसे ही आचार्यश्री का नाम हम बालकों की नसों का खून बन गया था। उनका नाम ही हमारा आराध्य, सद्गुरु और हमारा सम्बल था, क्योंकि अभी तक हम लोगों ने आचार्यश्री का प्रत्यक्ष दर्शन नहीं किया था। गुरुकुल की हर चुनौती हम लोगों को एक नई चेतना और प्रेरणा से भर जातो थी-फिर भले ही वह कभी उबले चने खाकर रह जाने की बात हो या खिचड़ो खाकर दिन काट देने वाली या प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझने की शक्ति । हमारे निर्बल हाथों में ताकत नहीं थी। लेकिन हम सभी के साथ आचार्य देशभूषण जी जैसे चारित्रचक्रवर्ती की अदृश्य शक्ति की छत्र-छाया सदैव रहती थी।
स्वर्गीय पं० कामताप्रसाद जी न्यायतीर्थ आचार्यश्री के उपदेश और आदेश से अपना शेष जीवन तीर्थक्षेत्र और गुरुकूल की सेवा में लगाने के समर्पित भाव से मैनेजर के रूप में व हम लोगों के लिये 'बड़े पंडित जी' बनकर आये थे । उन्होंने हम बालकों के लिये झोली फैलाई, आसाम और कलकत्ता घूमे और आर्थिक अनुदान जुटाया तथा कभी भी हम बालकों को अभाव से ग्रसित नहीं होने दिया। सप्त ऋषियों के मन्त्र की जाप देकर जब वे उठते थे तो कहने लगते-"बेटो ! तुम्हारे लिये मुझे प्रचारक और चाकर भी बनना पड़े तो बनकर आचार्यश्री को दिया वचन निभाऊँगा।" अपने अन्तिम समय से कुछ माह पूर्व वे बुन्देलखण्ड में प्रथम बार मेरे शासकीय सेवास्थल पर आये थे। लगभग १५ दिन रहने के उपरान्त विदा लेते समय आंसुओं से भरी आँखों से कहने लगे - "बेटा ! जिस गुरुकुल के लिए मैंने अपना जीवन अर्पण किया था, आज वह बन्द हो गया और तीर्थक्षेत्र कमेटी वालों की राजनीति ने मुझे दूध में गिरी मक्खी की भांति अलग कर दिया है।" जब धर्म में राजनीति का प्रवेश हो जाता है, तब होम करने वालों के हाथ जलाने के षड्यन्त्र रचने शुरू हो जाते हैं और इसी का शिकार पंडित जो को भी होना पड़ा।
गुरुकुल स्थापना के प्रथम वर्ष (१९५३) में हम छात्रों की इच्छा आचार्यश्री के दर्शन करने की हुई । उस समय आचार्यरत्न टिकैतनगर (बाराबंकी) में चातुर्मास कर रहे थे। हम लोग टिकैतनगर जा पहुंचे। आचार्यश्री को श्रद्धाभिभूत हो प्रणाम किया और बैठ गये उनका मंगल प्रवचन सुनने । उन दिनों आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी अपनी कौमार्य अवस्था में ब्रह्मचारिणी का अखण्ड व्रत लेकर आचार्यश्री के सान्निध्य में बैठी रहती थीं। हम लोग अपनी बालसुलभ क्रीड़ा में उन्हें आर्यिका जी कहने लगे तो वे बहुत हंसी थीं। उन्होंने हम लोगों के सिर पर ऐसे ही हाथ फेरा था जैसे कोई बड़ी बहिन छोटे भाइयों को शुभाशीष और प्यार लुटाती हो। आज उनका अगाध ज्ञान और चारित्र की उत्कृष्टता देखकर मस्तक गर्व से ऊंचा उठ जाता है कि ये वही ज्ञानमती माताजी हैं जिनके घर उनके छोटे भाई-बहिनों के साथ हम खेला करते थे।
एक दिन आचार्यश्री उपदेश देकर बाहर निकले तो हम सभी छात्रों को एकत्रित देखकर एक सिंघाड़े बेचने वाले की ओर इशारा करते हुए हँस कर कहने लगे-"क्या तुम सभी बच्चे सिंघाड़ा खाओगे?" उनकी मुस्कराहट और ममत्व भरी निस्पृह दृष्टि देखकर सिंघाड़ा बेचने वाला अपनी पूरी टोकरी उँडेलकर जाने लगा। शायद किसी श्रावक ने उसको पूरे पैसे भी दे दिये थे। जी भरकर हम लोगों ने कच्चे हरे सिंघाड़े खाये । यह घटना भले ही छोटी है, लेकिन इसके पीछे आचार्यश्री का गुरुकुल के प्रति एक लगाव और
कालजयी व्यक्तित्व
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