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श्रमण-परम्परा में एक ज्यतिर्मय व्यक्तित्व
आचार्य राजकुमार जैन
भारत में जैन आचार और विचार ने जिस संस्कृति विशेष को जन्म दिया, वह सात्त्विकता, पवित्रता, शुद्धता एवं दृष्टिकोण की व्यापकता के कारण अतिश्रेष्ठ एवं उन्नत मानी गई। उसने जन-सामान्य को जो दिशा दृष्टि प्रदान की, उसमें मनुष्य आत्महित के द्वारा अक्षय सुख व शान्ति का अनुभव करने लगा। उस संस्कृति में ही जब श्रमण-धर्म और उसके आचार-विचार का भी विश्लेषणपूर्वक अभिनिवेश हुआ तो चिरन्तन सत्य के रूप में अभ्युदय एवं निःश्रेयस-परक वह संस्कृति "श्रमण संस्कृति" के नाम से अभिहित हुई। श्रमण संस्कृति के स्वरूप-निर्माण, अभ्युत्थान एवं विकास में श्रमणों एवं श्रमण परम्परा का जो अद्वितीय योगदान है, उसे विस्मृत नहीं किया जा सकता । श्रमण शब्द के अभिप्राय को स्पष्ट करने की दृष्टि से कहा गया है-"श्राम्यति तपः क्लेश: सहते पति श्रमणः।" अर्थात थमण शब्द का अर्थ है-सभी प्रकार के अन्तः बाह्य परिग्रह से रहित जैन साधु । श्रमण संस्कृति में मानवता के वे उच्चतम आदर्श, आध्यात्मिकता के वे गूढ़तम रहस्यमय तत्त्व एवं व्यावहारिकता के वे अकृत्रिम सिद्धान्त निहित हैं जो मानव मात्र को चिरन्तन सत्य की अनुभूति व साक्षात्कार कराते हैं । मानवता के हित-साधन में अग्रणी होने के कारण वह वास्तव में सच्ची मानव-संस्कृति है और इस मानव-संस्कृति के अनुयायी, परिपालक, उद्घोषक एवं विश्लेषक रहे हैं हमारे प्रातःस्मरणीय गुरुदेव आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज। इसमें कोई भी सन्देह नहीं है कि आचार्य श्री देशभूषण जी ने श्रमण-धर्म, श्रमण आचार-विचार एवं श्रमण-परम्परा का पूर्णतः परिपालन एवं निर्वाह किया है। अतः श्रमण संस्कृति एवं श्रमण परम्परा में उनका अद्वितीय स्थान है।
वर्तमान शताब्दी में श्रमण आचार-विचार का निष्ठा एवं विवेकपूर्वक परिपालन करने के कारण आचार्य यो देशभूषण जी को श्रमण परम्परा में विशिष्ट महत्त्व एवं अद्वितीय स्थान प्राप्त है, अतः यहां संक्षेपत: श्रमण एवं श्रामण्य की चर्चा करना अप्रासंगिक नहीं होगा। "श्रमणस्य भावः श्रामण्यम्" अर्थात श्रमण के भाव को ही श्रामण्य कहते हैं। संसार के प्रति मोह-ममता, राग-द्वेष के भाव का पूर्णतः त्याग करना अथवा संसार के समस्त अन्तःबाह्य परिग्रहों से रहित होकर पूर्णतः संन्यास ग्रहण करना और संयमपूर्वक साधु-पथ का अनुकरण करना ही "श्रामण्य" कहलाता है। इसमें किसी भी प्रकार के विकार के लिए रंचमात्र भी स्थान नहीं है और आचरण की शुद्धता एवं अन्तःकरण की पवित्रतापूर्वक संयमाचरण को ही विशेष महत्त्व दिया गया है। इस प्रकार का अकृत्रिम एवं विशुद्ध आचरण करने वाला जैन साधु ही श्रमण होता है । उसके विशुद्धाचरण में बतलाया गया है कि वह पंच महाव्रतों का पालक एवं राग-द्वेषोत्पादक समस्त सांसारिक वृत्तियों का परित्यक्ता होता है। वह निष्कर्म भाव की साधना से पूर्ण एकाग्रचित्तपूर्वक आत्मचिन्तन में लीन रहता है। आडम्बरपूर्ण व्यवहार एवं क्रिया-कलापों का उसके जीवन में कोई स्थान नहीं होता और वह आत्महित साधन के साथ मानवता के प्रति सर्वतोभावेन समर्पित रहता है ।
आचार्य श्री देशभूषण जी साधनारत महान् जैन साधु हैं और पूर्ण निष्ठापूर्वक साधुवृत्ति का आचरण करते हैं। इस दृष्टि से उन्होंने अपने जीवन में कभी शिथिलाचार नहीं आने दिया । अनेक बार उन्हें अपने जीवन में भीषण परिस्थितियों एवं समस्याओं का सामना करना पड़ा। किन्तु वे न तो कभी विचलित हुए, न कभी घबड़ाये और न ही कभी अपने आचरण को रंचमात्र भी दूषित होने दिया। इस प्रकार वे सही अर्थों में उच्चकोटि के साधक होने के कारण श्रमण हैं । श्रमणत्व उनकी रग-रग में व्याप्त है और श्रमण धर्म उनके आचरण में स्पष्टतः झलकता है । जिन लोगों को उनके दर्शन लाभ का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, उन्होंने वास्तव में श्रमणत्व की एक जीती-जागती प्रतिमा के दर्शन किए हैं। कमल की भांति सदैव खिला उनका मुख-मण्डल उनके अभूतपूर्व सौम्य भाव को दर्शाता है। उनके चेहरे पर विद्यमान अद्वितीय तेज उनके साधनामय संयमपूर्ण जीवन का साक्षी है। उन्होंने अपने साधनामय जीवन के द्वारा सच्चे श्रमण का जो आदर्श उपस्थित किया है, सुदीर्घकाल तक उसका उदाहरण मिलना संभव नहीं है । अपने हृदय की विशालता और उस विशाल हृदय में व्याप्त मानवता के प्रति असीम करुणा का ऐसा विलक्षण धनी चिरकाल तक देखने को नहीं मिलेगा।
आप एक युगपुरुष हैं और साथ ही युगद्रष्टा भी हैं। आपने जीवन के यथार्थ के साथ ही मानवीय मूल्यों एवं वर्तमान में हो रहे उनके ह्रास को भी समझा है। आपने स्वयं अनुभव किया है कि जीवन की जटिलताओं से घिरा हुआ निरीह मानव आज कितना
· कालजयी व्यक्तित्व
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