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अर्थात् समस्त उपाधियों से मुक्त होकर धनधाम आदि सम्पूर्ण परिग्रह को छोड़कर मद-मोह आदि विकारों को निरस्त करके, सुखद समभाव से परिपूरित हो, जिन्होंने एक वर्ष का उपवास किया, उन भगवान् गोम्टेश्वर का मैं नित्य नमन करूँ ।
उपाहिमुत्तधनधाम बज्जियं,
सुसम्म मय मोहहारयं ।
वस्सेय पज्जंतमुववास- जुत्तं,
वं गोमटेस पणमामि शिवं । (गोम्मटेस-बुदि, पद सं०८)
दक्षिण भारत में कर्नाटक राज्य के उदार होयसल वंशी नरेशों के राज्यकाल में जैनधर्म का विशेष संरक्षण हुआ । होयसल नरेश राजा विनयादित्य का समय भारतीय इतिहास में 'जैन मन्दिरों के निर्माण का स्वर्णयुग' माना जाता है । श्रवणबेलगोल से प्राप्त एक अभिलेख [ लेख सं० ५३ (१४३) ] में कहा गया है कि उन्होंने कितने ही तालाब व कितने ही जैनमन्दिर निर्माण कराये थे। यहाँ तक कि ईंटों के लिए जो भूमि खोदी गई वहाँ तालाब बन गये, जिन पर्वतों से पत्थर निकाला गया वे पृथ्वी के समतल हो गये, जिन रास्तों से चूने की गाड़ियाँ निकलीं वे रास्ते गहरी घाटियाँ हो गये। इसी वंश के प्रतापी राजा विष्णुवर्धन ( ई० ११०६ से ११४१ ) के राज्यकाल में होयसलेश्वर एवं शांतलेश्वर के विश्व प्रसिद्ध शिवालयों का निर्माण हुआ । उपरोक्त मन्दिरों के लिए विशाल नंदी - मण्डप बनाए गए। सैकड़ों शिल्पियों के संयुक्त परिश्रम से कई मास में नन्दियों की मूर्ति बनकर तैयार हुईं। विशाल नन्दियों की मूर्ति को बैलगाड़ियों और वाहनों द्वारा देवालय तक ले जाना असम्भव था । नवनिर्मित नन्दी की प्रतिमाएँ मन्दिर तक कैसे पहुंचीं इसका रोचक विवरण श्री के० वी० अय्यर ने 'शान्तला' में एक स्वप्न - कथा के रूप में इस प्रकार प्रस्तुत किया है
"देव, नन्दी - पत्थर के नन्दी चले आ रहे हैं ! वे जीवित हैं ! उनका शरीर सोने के समान चमक रहा है ! वहाँ जो प्रकाश फैला है, वह नन्दियों के शरीर की कांति ही है । प्रभो, उनकी आंखें क्या हैं, जलते हुए अंगारे हैं ! हम लोगों ने जो कुछ देखा, वही निवेदन कर रहे हैं। महाप्रभो, इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है । यदि यह असत्य हो, तो हम अपने सिर देने के लिए तैयार हैं । कैसा आश्चर्य हैं ! पत्थर के नन्दी चले आ रहे हैं! भगवान बाहुबली स्वामी विराट् शिला प्रतिमा स्वयं नन्दियों को चलाते आ रहे हैं! अटारी पर बड़े होकर अपनी आंखों से हमने यह दृश्य देखा है ! फौरन ही आपके पास आकर समाचार सुना दिया है ! शिला-कृतियाँ जीवित हो उठी हैं—यह कैसा अद्भुत काल है ! अप्पा जी ( नरेश विष्णुवर्धन) ने कहा- तुम लोग धन्य हो कि सबसे पहले ऐसे दृश्य को देखने का सौभाग्य प्राप्त किया ! जाओ, सबको यह संतोष का समाचार सुनाओ कि जीवित नन्दी पैदल चले आ रहे हैं और भगवान् बाहुबली उन्हें चलाते आ रहे हैं ।
जब उपस्थित लोगों को यह मालूम हुआ, तब उनके आनन्द की सीमा न रही। उन्नत सौधानों तथा वृक्षों के शिखरों पर चढ़कर लोग इस दृश्य को देखने लगे । लगभग तीन कोस की दूरी पर भगवान् बाहुबली - श्रवलबेलगोल के गोम्मटेश्वर स्वामी - नन्दियों को चलाते आ रहे थे । महोन्नत शिलामूर्ति जो कि बारह पुरुषों के आकार-सी बड़ी है---एक सजीव, सौम्य पुरुष के रूप में दिखाई दे रही थी । गोम्मटेश्वर के प्रत्येक कदम पर धरती काँपने लगती थी । उनके पद-तल में जितने लता - गुल्म पड़ते थे, चूर-चूर हो जाते थे । अहंकार की भांति जमीन के ऊपर सिर उठाये हुए शिला खण्ड भगवान् बाहुबलि के पदाघात से भूमि में धँस जाते थे । नन्दियों के बदन से सोने की-सी छवि छिटकती थी । उनके गले में बँधे हुए, पीठ पर लटकते हुए नाना प्रकार के छोटे-बड़े घंटे, कमर पर, बगल में, पैरों में लगे हुए घुंघरू मधुर निनाद कर रहे थे, जिनकी प्रतिध्वनि कानन में सर्वत्र गूंज रही थी । x x x
वे नन्दी ! दीदी, सुनहले रंग के नन्दी । मेरु पर्वत की भाँति उन्नत, पुष्ट, उत्तम आभरणों से सजे हुए नन्दियों को परम सौम्य एवं सुन्दर भगवान् बाहुबली का चलाते हुए आना ऐसा भव्य दृश्य था जिसकी महत्ता का परिचय उसे स्वयं देखने पर ही हो सकता है। शब्दों से उसका वर्णन करना सचमुच असंभव ही है। लोग परस्पर कहने लगे – 'इससे बढ़कर पुण्य का दृश्य और कहाँ देखने को मिलेगा ! इसे देखकर हमारी आँखें धन्य हुईं। मरते दम तक मन में इस दृश्य को रखकर जी सकते हैं ।' x x x
बाहुबली स्वामी नन्दियों को देवालय के महाद्वार तक चलाते आये। तब अप्पाजी, तुम, छोटी दीदी, मैं तथा उपस्थित सब लोगों ने आनन्द तथा भक्ति से हाथ जोड़कर बाहुबली तथा नन्दियों के चरणों पर सिर रखकर प्रणाम किया। महाद्वार के ऊपर से लोगों ने पुष्पों से महावनि स्वामी का मस्तकाभिषेक किया।" (१०२३२, २३३, २४० )
प्रस्तुत अंश के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि भगवान् बाहुबली जैन एवं जैनेतर धर्मों के परमाराध्य पुरुष के रूप में शताब्दियों से वन्दनीय रहे हैं । शैव मन्दिर के निर्माण की परिकल्पना में भगवान् बाहुबली का भक्ति एवं श्रद्धा से स्मरण और उनका सुगन्धित पुष्पों से देवालय के महाद्वार पर पुष्पाभिषेक यह सिद्ध करता है कि भगवान् बाहुबली जैन समाज के ही नहीं अपितु सम्पूर्ण कर्नाटक राज्य की
आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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