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________________ पाषाण लेख (१०६/२८१) में उनके कुल एवं विजय अभियानों का ऐतिहासिक विवरण इस प्रकार मिलता है ब्रह्म-क्षत्र-कुलोदयाचल-शिरोभूषामणि नुमान् । ब्रह्म-क्षत्रकुलाब्धि-वर्द्धन-यशो-रोचिस्सुधा-दीधितिः । ब्रह्म-क्षत्र-कुलाकराचल-भव-श्री-हार वल्लीमणि: ब्रह्म-क्षत्र-कुलाग्निचण्डपवनश्चावुण्डराजोऽजनि। कल्पान्त-क्षुभिताब्धि-भीषण-बलं पातालमल्लानुजम् जेतुं वज्विलदेवमुद्यतभुजस्येन्द्र-क्षितीन्द्राज्ञया । पत्युपश्री जगदेकवीर नपतेर्जंत्र-द्विपस्याग्रतो धावद्दन्तिनि यत्र भग्नमहितानीकं मृगानीकवत् । अस्मिन् दन्तिनि दन्त-वज्र-दलित-द्विट्-कुम्भि-कुम्भोपले वीरोत्तंस-पुरोनिषादिनि रिप-व्यालांकुशे च त्वयि । स्यात्कोनाम न गोचरप्रतिनपो मद्बाण-कृष्णोरगग्रासस्येति नोलम्बराजसमरे यः श्लाघित: स्वामिना। खात:क्षार-पयोधिरस्तु परिधिश्चास्तु त्रिकूटरपुरी लंकास्तु प्रतिनायकोऽस्तु च सुरारातिस्तथापि क्षमे । तं जेतुं जगदेकवीर-नृपते त्वत्तेजसे तिक्षणान्नियूंढं रणसिंग-पात्थिव-रणे येनोज्जितं गज्जितम् । वीरस्यास्य रणेषु भूरिषु वय कण्ठग्रहोत्कण्ठया तप्तासम्प्रति लब्ध-निवृतिरसास्त्वत्खड्ग-धाराम्भसा । कल्पान्तं रणरंगसिंग-विजयी जीवेति नाकांगना गीर्वाणी-कृत-राज-गन्ध-करिणे यस्मै वितीर्णाशिषः । आक्रष्टुं भुज-विक्रमादभिलषन गंगाधिराज्य-श्रियं येनादौ चलदंक-गंगनृपतिळाभिलाषीकृतः। कृत्वा वीर-कपाल-रत्न-चषके वीर-द्विषश्शोणितम् पातुं कौतुकिनश्च कोणप-गणा:पूर्नाभिलाषीकृताः। धर्मपरायण माननीय श्री हर्गडे जी (लगभग ई० १२००) ने इसी स्तम्भ पर यक्ष देवता की मूर्ति का निर्माण कराने के लिए इस दुर्लभ अभिलेख को तीन ओर से घिसवा दिया। किन्तु श्री हर्गडे जी के इस भक्तिपरक अनुष्ठान के कारण इस शिलालेख के महत्त्वपूर्ण अंश लुप्त हो गए हैं । परिणामस्वरूप जैन समाज महान् सेनानायक चामुण्डराय और गोम्मट विग्रह के निर्माण की प्रामाणिक जानकारी से वंचित रह गया है। चामुण्डराय के पुत्र आचार्य अजितसेन के शिष्य जिनदेवण ने लगभग १०४० ई० में श्रवणबेलगोल में एक जैन मन्दिर (अभिलेख ६७ (१२१) ) बनवाकर अपने यशस्वी पिता की भांति भगवान् गोम्मटेश के चरणों में श्रद्धा अर्पित की थी। आचार्य अजितसेन की यशस्वी शिष्य परम्परा कनकनन्दि, नरेन्द्रसेन (प्रथम), त्रिविधचक्रेश्वर, नरेन्द्रसेन, जिनसेन और उभयभाषा चक्रवर्ती मल्लिषेण की श्रवणबेलगोल के विकास एवं संरक्षण में रुचि रही है। श्रवणबेलगोल स्थित भगवान् गोम्मटस्वामी की नयनाभिराम प्रतिमा अपने निर्माणकाल से ही जन-जन की आस्था के प्रतीक रूप में सम्पूजित रही है। एक लोककथा के अनुसार स्वर्ग के इन्द्र एवं देवगण भी इस अद्वितीय प्रतिमा की भुवनमोहिनी छवि के दर्शन के निमित्त भक्ति भाव से पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं। भगवान् गोम्मटस्वामी के विग्रह के निर्माण में अग्रणी सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्र ने कर्मकाण्ड की गाथा सं०६६६ में भगवान् बाहुबली स्वामी की विशाल प्रतिमा के लोकोत्तर स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए कहा है कि उसे सर्वार्थसिद्धि के देवों ने और सर्वावधि-परमावधिज्ञान के धारी योगियों ने दूर से देखा। इन्द्रगिरि पर स्थित भगवान् गोम्मटेश की तपोरत प्रतिमा के चरणों में अपनी भक्ति का अर्घ्य समर्पित करते हुए आचार्यश्री नेमिचन्द्र ने कहा है-- गोम्मटेश दिग्दर्शन ५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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