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रेजे स तदवस्थोऽपि तपो दुश्चरमाचरन् । कामीव मुक्तिकामिन्यां स्पृहयालुः कृशीभवन् ।।
तपस्तनूनपात्ताप संतप्तस्यास्य केवलम् । शरीरमशुषन्नोवंशोषं कर्माप्यशर्मदम् ।। ___ अर्थात् कन्धों पर्यन्त लटकती हुई केशरूपी लताओं को धारण करने वाले वे बाहुबली मुनिराज अनेक काले सो के समूह को धारण करने वाले हरिचन्दन वृक्ष का अनुकरण कर रहे थे। फूली हुई वासन्तीलता अपनी शाखारूपी भुजाओं के द्वारा उनका गाढ़ आलिंगन कर रही थी और उससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो हार लिये हुए कोई सखी ही अपनी भुजाओं से उनका आलिंगन कर रही हो। जिसके कोमल पत्ते विद्याधरों ने अपने हाथ से तोड़ लिये हैं ऐसी वह वासन्ती लता उनके चरणों पर पड़कर सूख गयी थी और ऐसी मालूम होती थी मानो कुछ नम्र होकर अनुनय करती हुई कोई स्त्री ही पैरों पर पड़ी हो। ऐसी अवस्था होने पर भी वे कठिन तपश्चरण करते थे जिससे उनका शरीर कृश हो गया था और उससे ऐसे जान पड़ते थे मानो मुक्तिरूपी स्त्री की इच्छा करता हुआ कोई कामी ही हो। तपरूपी अग्नि के सन्ताप से सन्तप्त हुए बाहुबली का केवल शरीर ही खड़े-खड़े नहीं सूख गया था किन्तु दुःख देनेवाले कर्म भी सूख गये थे अर्थात् नष्ट हो गये थे।
उग्र और महाउन तप से भगवान् गोम्मटेश अत्यन्त कृश हो गए थे। उन्होंने दीप्त, तप्तघोर, महाघोर नाम के तपश्चरण किए थे। इन तपों से मुनिराज बाहुबली ऐसे सुशोभित हो रहे थे जैसे मेघों के आवरण से निकला हुआ सूर्य अपनी किरणों से जगत् को प्रकाशवान कर देता है। उनकी तपश्चर्या के प्रभाव से परस्पर विरोध भाव रखने वाले जंगल के प्राणियों में भी सद्भाव बन गया था। आचार्य जिनसेन के शब्दों में
विरोधिनोऽप्यमी मुक्तविरोध स्वरमासिताः । तस्योपांघीभसिंहाद्याः शशंसुर्वैभवं मुनेः। जरज्जम्बूकमाघ्राय मस्तके व्याघ्रधेनुका । स्वशावनिविशेष तामपीप्यत् स्तन्यमात्मनः।। करिणो हरिणारातीनन्वीयुः सह यूथपैः । स्तनपानोत्सुका भेजुः करिणी: सिंहपोतकाः ।। कलमान् कलभांकारमुखरान् नखरैः खरैः। कण्ठीरवः स्पृशन् कण्ठे नाभ्यनन्दि न यूथपैः ।।
(आदिपुराण, पर्व ३६/१६५-१६८) अर्थात् उनके चरणों के समीप हाथी, सिंह आदि विरोधी जीव भी परस्पर का वैर-भाव छोड़कर इच्छानुसार उठते-बैठते थे और इस प्रकार वे मुनिराज के ऐश्वर्य को सूचित करते थे। हाल की ब्यायी हुई सिंहनी भैसे के बच्चे का मस्तक सूंघकर उसे अपने बच्चे के समान अपना दूध पिला रही थी। हाथी अपने झुण्ड के मुखियों के साथ-साथ सिंहों के पीछे-पीछे जा रहे थे और स्तन के पीने में उत्सुक हुए सिंह के बच्चे हथिनियों के समीप पहुंच रहे थे । बालकपन के कारण मधुर-शब्द करते हुए हाथियों के बच्चों को सिंह अपने पैने नाखूनों से उनकी गरदन पर स्पर्श कर रहा था और ऐसा करते हुए उस सिंह को हाथियों के सरदार बहुत ही अच्छा समझ रहे थे-उसका अभिनन्दन कर रहे थे।
भगवान् बाहुबली के लोकोत्तर तप के पुण्य स्वरूप तिर्यंच जीवों के हृदय में व्याप्त अज्ञानान्धकार नष्ट हो गया था। जंगल के क्रूर जीव शान्ति सुधा का अमृतपान कर अहिंसक हो गए थे। भगवान् गोम्मटेश के चरणों के समीप के छिद्रों में से काले फण वाले नागराजों की लपलपाती हुई जिह्वाओं को देखकर प्रातःस्मरणीय आचार्य जिनसेन को भगवान् की पूजा के निमित्त नील कमलों से परिपूरित पूजा की थाली की सहसा स्मृति हो आईउपाङ घ्रि भोगिनां भोगविनीलय॑रुचन्मुनिः । विन्यस्तैरर्चनायेव नीलरुत्पलदामकैः ।
(आदिपुराण, पर्व ३६/१७१) दिव्य तपोमूर्ति गोम्मटेश स्वामी की सतत साधना जन-जन की आस्था का केन्द्र रही है। भगवान् बाहुबली के तपोरत रूप से अभिभूत कन्नड कवि गोविन्द पै भाव-विह्वल अवस्था में प्रश्न कर बैठते हैं-'तुम धूप में मुरझाते नहीं, ठण्ड में ठिठुरते नहीं, वर्षा से टपकते नहीं, तुम्हारे विवाह में दिशारूपी सुहागिनों ने तुम्हारे ऊपर नक्षत्र-अक्षत बरसाए, चन्द्र और सूर्य का सेहरा तुम्हारे सिर पर रखा, मेघ-दुन्दुभि के साथ बिजली से तुम्हारी आरती उतारी, नित्यता-वधू आतुरता से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है ! आँखें खोलकर देखते क्यों नहीं? हे गोम्मटेश्वर !'
(र० श्री. मुगलि, कन्नड साहित्य का इतिहास, पृ० २२६)
चक्रवर्ती सम्राट भरत ने तपोमूर्ति बाहुबली स्वामी द्वारा एक वर्ष की अवधि के लिए धारण किए गए प्रतिमायोग व्रत की समापन वेला के अवसर पर महामुनि बाहुबली के यशस्वी चरणों की पूजा की। पूजा के समय श्री गोम्मटस्वामी को केवलज्ञान हो गया। यह प्रसन्न चित्त सम्राट् भरत का कितना बड़ा अहोभाग्य था ! उन्हें बाहुबली स्वामी के केवलज्ञान उत्पन्न होने के पहले और पीछे---- दोनों ही समय मुनिराज बाहुबली की विशेष पूजा का अवसर प्राप्त हुआ। सम्राट भरत ने केवलज्ञान उन्पन्न होने से पहले जो पूजा की थी वह अपना अपराध नष्ट करने के लिए की थी और केवलज्ञान होने के बाद जो विशेष पूजा की वह केवलज्ञान की उत्पत्ति के अनुभव के लिए की थी। आचार्य जिनसेन के अनुसार सम्राट भरत द्वारा केवलज्ञानी बाहुबली की भक्तिपूर्वक की गई अर्चना का शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता।
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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