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________________ अनुज के मुखारविन्द से निकली हुई वाणी से भरत के सन्तप्त मन को शान्ति मिली। बाहुबली के विनम्र एवं शालीन व्यवहार को देखकर सम्राट भरत विस्मयमुग्ध हो गये और उनके उदात्त चरित्र का गुणगान करते हुए कहने लगे पई जिह तेय वतु ण दिवायरु । णउ गंभीरु होइ रयणायरु । पई दुज्जसकलंकु पक्खालिउ । णाहिरिंदवंसु उज्जालिउ । पुरिसरयणु तुहुँ जगि एक्कल्लउ । जेण कय उ महु बलु वेयल्लउ । को समत्थु उवसमु पडिवज्जइ । जगि जसढक्क कासु किर वज्जइ । पई मुएवि तिहुयणि को चंगउ । अण्णु कवणु पच्चक्खु अणंगउ । अण्णु कवणु जिणपयकयपेसणु । अण्णु कवणु रखियणिवसासणु । (महापुराण, सन्धि १८/३) तुम जितने तेजस्वी हो, उतना दिवाकर भी तेजस्वी नहीं है। तुम्हारे समान समुद्र भी गम्भीर नहीं है । तुमने अपयश के कलंक को धो लिया है और नाभिराज के कुल को उज्ज्वल कर लिया है। तुम विश्व में अकेले पुरुषरत्न हो जिसने मेरे बल को भी विकल कर दिया। कौन समर्थ व्यक्ति शान्ति को स्वीकार करता है। विश्व में किसके यश का डंका बजता है। तुम्हें छोड़कर त्रिभुवन में कौन भला है ? दूसरा कौन प्रत्यक्ष कामदेव है। दूसरा कौन जिनपदों की सेवा करनेवाला है और दूसरा कौन नृपशासन की रक्षा करनेवाला है। दीक्षार्थी बाहबली ने सांसारिक सुखों का त्याग करते हुए अपने पुत्र को राज्य भार देकर तपस्या के लिए वन में प्रवेश किया। उन्होंने समस्त भोगों को त्याग कर वस्त्राभूषण उतारकर फेंक दिए और एक वर्ष तक मेरु पर्वत के समान निष्कम्प खड़े रहकर प्रतिमा योग धारण कर लिया। दीक्षा रूपी लता से आलिगित बाहुबली भगवान निवृत्तिप्रधान साधुओं के लिए शताब्दियों से प्रेरणा-पुंज रहे हैं। महाकवि स्वयंभू ने 'पउमपरिउ' में भगवान् बाहुबली की तपश्चर्या का संक्षिप्त किन्तु प्रभावशाली चित्रांकन इस प्रकार किया है वड्ढिउ सुठ्ठ विसालेहि वेल्ली-जालेहि अहि-विच्छिय-वस्मीयहि । खणु वि ण मुक्कु भडारउ मयण-वियारउ णं संसारहों भीहि । (पउमचरिउ, संधि ४/१२) अर्थात् पर्वत की तरह अचल और शान्त चित्त होकर खड़े रहे। बड़ी-बड़ी लताओं के जालों, सांप-बिच्छुओं और बांवियों से वे अच्छी तरह घिर गये, कामनाशक भट्टारक बाहुबलि एक क्षण भी उनसे मुक्त नहीं हुए। मानो संसार की भीतियों ही ने उन्हें न छोड़ा हो! महाकवि पुष्पदन्त ने भगवान् बाहुबली की अकाम-साधना को विश्व की सर्वोपरि उपलब्धि मानते हुए चक्रवर्ती भरत के मुखारविन्द से कहलवाया है "थुणइ णराहिउ पयपडियल्लउ पई मुएवि जगि को विण भल्लउ । पई कामें अकामु पारद्धउ पई राएं अराउ कउ णिद्धउ । पई बाले अबालगइ जोइय पई अपरेण वि परि मइ ढोइय । पई जेहा जगगुरुणा जेहा एक्कु दोष्णि जइ तिहुयणि तेहा।” (महापुराण, ८६) अर्थात् आपको छोड़कर जग में दूसरा अच्छा नहीं है, आपने कामदेव होकर भी अकामसाधना आरम्भ की है। स्वयं राजा होकर भी अराग (विराग) से स्नेह किया है, बालक होते हुए भी आपने पण्डितों की गति को देख लिया है। आप और विश्वगुरु ऋषभनाथ जैसे मनुष्य इस दुनिया में एक या दो होते हैं। भगवान बाहबली की कठोर एवं निस्पृह साधना ने जिनागम के सूर्य आचार्य जिनसेन के मानस पटल को भावान्दोलित कर दिया था। इसीलिए उन्होंने अपने जीवन की सांध्य बेला में तपोरत भगवान् बाहुबली की शताधिक पद्यों द्वारा भक्तिपूर्वक अर्चा की है। 'आदिपुराण' के पर्व ३६।१०४ में योगीराज बाहुबली के तपस्वी परिवेश को देखकर उनके भक्तिपरायण मन में पत्तों के गिर जाने से कृश लतायुक्त वृक्ष का चित्र उपस्थित हो गया। साधना काल में भयंकर नागों और वनलताओं से वेष्टित महामुनि बाहुबली के आत्मवैभव का उन्होंने आदिपुराण पर्व ३६।१०६-११३ में इस प्रकार दिग्दर्शन कराया है दधानः स्कन्ध पर्यन्तलम्बिनी: केशवल्लरीः । सोऽन्वगादूढकृष्णाहिमण्डलं हरिचन्दनम् ।। माधवीलतया गाढमुपगूढ: प्रफुल्लया । शाखाबाहुभिरावेष्ट्य सध्रीच्येव सहासया ।। विद्याधरी करालून पल्लवा सा किलाशुषत् । पादयोः कामिनीवास्य सामि नम्राऽननेष्यती।। गोम्मटेश दिग्दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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