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________________ संघ में कुछ दिन रहे और स्वतंत्र विहार करने लगे। विहार कर सिवनी में आये। वहीं पर आपने हिंदी भाषा का अभ्यास किया। आपको बुद्धि प्रखर होने से आपने कुछ ही दिनों में भली प्रकार हिंदी भाषा सीख ली। अब आपका विहार उत्तर भारत की राजधानी दिल्ली में हआ। वहां से आपने लखनऊ, टिकैत नगर, जयपुर इत्यादि स्थानों पर विहार किये । आपका विचार अयोध्या क्षेत्र के दर्शन करने का हुआ। जब आप अयोध्या क्षेत्र में पहुंचे तब वहाँ देखा कि मंदिर जीर्ण हो रहे हैं और विशेष दर्शनीय स्थान नहीं होने के कारण यात्रीगण भी वहां कम आते हैं। आप ने अयोध्या क्षेत्र की धार्मिक उन्नति के लिए दूध और मीठा खाने का त्याग किया। जब त्रिलोकपुर, बाराबंकी, टिकैत नगर के जैन समाज को ज्ञात हुआ तब लोगों ने आदिनाथ भगवान्, भरत और बाहुबली की तीन प्रतिमायें बनवाकर अयोध्या में कटरा के मन्दिर में महाराज श्री द्वारा पंचकल्याण प्रतिष्ठा करवाई तथा जीर्णशीर्ण मन्दिरों का जीर्णोद्धार भी कराया गया। इसके पश्चात् भी आपका लक्ष्य अयोध्या क्षेत्र को उन्नत बनाने का रहा और दिल्ली नगरी में चातुर्मास किया। लाला पारसदास तथा लाला प्रतापसिंह मोटर बालों के यहां जब आपका आहार हुआ तो आपने अयोध्या में एक विशालकाय मूर्ति की स्थापना करने का भाव प्रकट किया । आपकी प्रेरणा पाकर पारसदास मोटर वालों ने तथा प्रतापसिंह मोटर वालों ने एक बड़ी धनराशि प्रदान की जिससे मूर्ति निर्माण करने का ठेका दे दिया गया। महाराज श्री ने अयोध्या की तरफ कोथली से विहार किया और टिकैतनगर में चातुर्मास किया। वहां पर एक ब्रह्मचारिणी को क्षुल्लिका दीक्षा दी । बाराबंकी में तथा लखनऊ में चातुर्मास किया और अयोध्या के एक ब्राह्मण राजा के उद्यान को, जो बेचा जा रहा था, खरीद लिया। उसी समय कलकत्ता चातुर्मास के पश्चात् विहार करते समय साहू श्री शान्तिप्रसाद जी ने ५१ हजार रुपया दान में निकाले और कहा कि जहां गुरु की आज्ञा होगी वहीं व्यय किये जावेंगे। तब महाराज ने उनको अयोध्या में मन्दिर बनवाने का भार सौंपा और तीन शिखर का मन्दिर बनवाकर पंचकल्याण प्रतिष्ठा श्री रामेश्वरलाल कलकत्ता वालों ने करवायी। आप कलकत्ता से विहार कर शिखर जी पहुंचे। वहां से दक्षिण की ओर श्रवणबेलगोल के लिए विहार किया। संघ की व्यवस्था का भार पारसमल जी कासलीवाल ने संभाला, साथ ही भागचन्द पाटनी उनकी सहायतार्थ चले । तब ब्र० पोखेराम संघ की सेवा में रहने लगे। श्रवणबेलगोल की यात्रा कर संघ का चातुर्मास कोल्हापुर साहूपुरी नेमिनाथ मन्दिर में हुआ। कलकत्ता 'बड़ा बाजार' में पारसमल कासलीवाल के यहां आहार हुआ। उसके उपलक्ष में उन्होंने २१००१ रुपये की रकम दान में दी थी। उस दान की रकम से आदिनाथ भगवान् की २१ फुट खड़गासन मूर्ति बनवाकर श्री लक्ष्मीसेन भट्टारक मठ कोल्हापुर में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई। सरोजबाई के सुपुत्र पारसमल एवं उनके परिवारजनों ने श्री महाराज के सान्निध्य में पंचकल्यागक प्रतिष्ठा कराई। उसके पश्चात् महाराज ने मानगाम में चातुर्मास किया और विहार कर श्री शान्तिसागर महाराज की निवासभूमि भोजग्राम में गये। वहाँ से विहार कर मांगूर में गये जहां पर श्री आचार्य पायसागर जी महाराज की प्रेरणा से मंदिर का निर्माण तो हो चुका था परन्तु उसमें मूर्ति नहीं थी। वह मन्दिर ऐसे लग रहा था जैसे आत्मा बिना शरीर । यह देखकर महाराज श्री ने एक सात फुट की सुलक्षण प्रतिमा मंगवाकर उसे पंचकल्याण प्रतिष्ठा सहित विराजमान करवाया। तदनन्तर दक्षिण भारत से विहार कर आप दिल्ली में चातुर्मास के पश्चात् राजस्थान की राजधानी और कलाओं के केन्द्र जयपुर में पहुंचे। यहां पर भी एक दर्शनीय जैन क्षेत्र निर्माण करने का आपका भाव हुआ। तब आपने पहाड़ी के ऊपर मन्दिर निर्माण करने की नींव डलवाई और अयोध्या के लिए विहार किया । संघ मथुरा पहुंचा। वहां पर मानस्तम्भ २५ वर्ष से बनकर तैयार था परन्तु उसकी प्रतिष्ठा कराने को कोई उत्साहित नहीं था। तब श्री आचार्य देशभूषण जी महाराज की विशेष प्रेरणा से मूर्ति मंगवाई गई तथा पंचकल्याण प्रतिष्ठापूर्वक मानस्तम्भ में भगवान् को विराजमान कराकर संघ ने विहार किया। संघ अयोध्या पहुंचा। वहां भी रायबाग में आदिनाथ भगवान् और चन्द्रप्रभु इत्यादि की तीन मूर्तियां पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सहित विराजमान करवाई गई। वहीं पर महाराज ने पोखेराम कलकत्ता वाले और जिनगोड़ा पाटिल तथा उनकी धर्मपत्नी रत्नाबाई और सिद्ध गोड़ा इन सब को क्षुल्लक दीक्षा प्रदान की। उस दिन संवत् २०२० वैशाख शुक्ला त्रयोदशी बुद्ध वार की तिथि थी । __ संघ ने अयोध्या से विहार कर दिल्ली चातुर्मास किया और दिल्ली से जयपुर तथा जयपुर में खानियां जी में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा करवाई। एक समय था कि कोई देव नित्यप्रति महाराज के पास आता था और बैठ कर चला जाता था। एक दिन महाराज श्री ने उससे पूछ लिया कि आप रोज कहां से आते हैं ? आप क्या जैन हैं ? तब वह बोला कि मैं यहीं नशिया जी में रहता हूं, आप का दर्शन करना मुझे अच्छा लगता है, इसलिए मैं आता हूं। महाराज ने पूछा, "तुम्हारा नाम क्या है ?" तब देव बोला कि मेरा नाम कालिद्री है। कालजयो व्यक्तित्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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