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मुनिराज नथमल जी ने की है तथा समग्र ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद मुनिश्री दुलहराज जी ने किया है। इसका सर्वप्रशम प्रकाशन सन् १९७४ में जैन विश्वभारती लाडनूं से हुआ।
इसका कथानक भरत चक्रवर्ती के छह खण्डों पर विजय प्राप्त करने के बाद उनके अयोध्यानगरी में प्रवेश के साथ होता है । उस समय बाहुबली बहली प्रदेश के शासक थे। बाहुबली के अपने अनुशासन में न आने से भरत चक्रवर्ती अपनी विजय को अपूर्ण मान रहे थे, अत: वे बाहुबली के पास सुवेग नामक दूत को भेजकर बाहुबली को संकेत करते हैं कि वे भरत का अनुशासन स्वीकार कर लें। बाहबली इसे अस्वीकार कर देते हैं और अन्त में दोनों में १२ वर्षों तक भयानक युद्ध होता है। युद्ध की समाप्ति पर बाहुबली भगवान ऋषभदेव के पास दीक्षा ले लेते हैं और भरत चक्रवर्ती शासन का काम करते हैं । अन्त में दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं।'
काण्ठासंघ नन्दी तट गच्छ के भट्टारक सुरेन्द्रकीति के शिष्य पामों ने संवत् १७४६ में भरतभुजबलीचरित्र की रचना की। इस रचना की पद्य संख्या २१६ है। अन्तिम पद्य का एक अंश निम्न प्रकार है
कारंजो जिनचन्द्र इंद्रवंदित नमि स्वार्थे । संघवी भोजनी प्रीत तेहना पठनार्थे । वलि सकल श्रीसंघ ने येथि सइ वांछित फले।
चक्रिकाम नामे करी पामो कह स रतरु फले ॥ कन्नड़ भाषा में बाहुबली सम्बन्धी अनेक रचनाए लिखी गई । इनमें से देवचन्द्रकृत "राजाबलिकथे" अत्यन्त प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसे जैन इतिहास का प्रामाणिक ग्रन्थ माना गया है । इस ग्रन्थ की प्राचीन ताडपत्रीय प्रति मैसूर के राजकीय प्राच्य ग्रन्थागार में सुरक्षित है जिसमें कुल २९८ पृष्ठ हैं। इसका वर्ण्य-विषय १३ प्रकरणों में विभक्त है । उसके प्रथम प्रकरण में (पृष्ठ ४-५) भरत चक्रवर्ती की दिग्विजय, बाहुबलि युद्ध एवं उनके द्वारा दीक्षा ग्रहण सम्बन्धी प्रसंग संक्षिप्त रूप में वणित हैं।
बाहुबलिशतक'-बाहुबली सम्बन्धी एक स्तूति परक हिन्दी रचना है जिसके लेखक श्री महेशचन्द्र प्रसाद हैं। इन्होंने सन् १९३५ में श्रवण बेलगोला की यात्रा की थी तथा गोम्मटेश की मति से प्रभावित होकर उक्त रचना लिखी थी। इसमें कुल १०५ पद्य हैं। नमूने के कुछ पद्य इस प्रकार हैं
जग ते पाहत होत जब, जग में पाहुन होत। जगते पाहन होत जब, जग में पाहन होत ।। हास नहीं उपहास यह, कली बली का मानु । कली कलेजे की कली, तोड़ी कली समानु । नहीं धरा पर किछु धरा, भरा कलेश निहसेस । धीर धराधर पे खड़े, यहै देन उपदेश ।। नासह तम अग्यान तुम, प्रग्या प्रभा प्रकासि । जनहित जनु कोउ दिव्य रुचि रुचिर रेडियम-रास ।। बना सर्वदा ही रहे तब स्नेह पैट्रोल । जाते पहुंचे मोक्ष को आतम-मोटर पोल ॥
वर्तमान में भी बाहुबली चरित सम्बन्धी साहित्य का प्रणयन हो रहा है। इस रचनाओं में मूल विषय के साथ-साथ आधनिक शैलियों एवं नवीन वादों के प्रयोग भी दृष्टगोचर होते हैं। रचनाएँ गद्य एवं पद्य दोनों में हैं। ऐसी रचनाओं में अन्तर्द्वन्द्वों के पार" (श्री लक्ष्मी चन्द्र जैन) गोम्मटेश गाथा" (नीरज), जय गोम्मटेश्वर' (श्री अक्षय कुमार जैन), भगवान आदिनाथ (श्री वसन्त कुमार शास्त्री), बाहुबली वैभव (श्री द्रोणाचार्य) प्रमुख हैं।
उक्त ग्रन्थ तो प्रकाशित अथवा अप्रकाशित होने पर भी अध्ययनार्थ उपलब्ध हैं, अतः उनकी विशेषताएं इस निवन्ध में प्रस्तुत की गई हैं। किन्तु अभी अनेक ग्रन्थरत्न ऐसे भी हैं, जिनकी केवल संक्षिप्त सूचनाएं तो उपलब्ध हैं किन्तु अध्ययनार्थ उन्हें उपलब्ध नहीं किया जा सकता क्योंकि वे दूरंदेशी विभिन्न शास्त्र भण्डारों में बन्द हैं। इनके प्रकाश में आने से बाहुबली कथानक पर नया प्रकाश पडेगा, इसमें सन्देह नहीं। ऐसे ग्रन्थों का विवरण इस प्रकार है
१. जैन विश्वभारती, लाडनू से प्रकाशित. २. जैन सिद्धान्त भास्कर २।४.१५४. ३. जैन सिद्धान्त भास्कर २१४११५६-६०. ४.५. भारतीय ज्ञानपीठ (दिल्ली, १९७६) से प्रकाशित. ६. स्टार पब्लिकेशंज (दिल्ली, १९७६) से प्रकाशित, ७. अनिल पाकेट बुक्स मेरठ से प्रकाशित. ५. अनेकान्त प्रकाशन, फीरोजाबाद (मागरा) से प्रकाशित,
गोम्मटेश दिग्दर्शन
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