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________________ श्रवणबेल्गोला के अभिलेखों में दान परम्परा श्री जगबीर कौशिक शुद्ध धर्म का अवकाश न होने से धर्म में दान की प्रधानता है । दान देना मंगल माना जाता था। याचक को दान देकर दाता विभिन्न प्रकार के सुखों की अनुभूति करता था। अभिलेखों के वर्ण्य-विषय को देखते हुए यह माना जा सकता है कि दान देने के कई प्रयोजन होते थे। कभी मुनि राजा या साधारण व्यक्ति को समाज के कल्याण हेतु दान देने के लिए कहता था तथा कभी लोग अपने पूर्वजों की स्मृति में बस्ति या निषद्या का निर्माण करवाते थे। किन्तु प्रसन्न मन से दान देना विशेष महत्त्वपूर्ण माना जाता है। साधारण रूप में स्वयं अपने और दूसरे के उपकार के लिए अपनी वस्तु का त्याग करना दान है। राजवात्तिक में भी इसी बात को कहा गया है। किन्तु धवला के अनुसार रत्नत्रय से युक्त जीवों के लिए अपने वित्त का त्याग करने या रत्नत्रय के योग्य साधनों को प्रदत्त करने की इच्छा का नाम दान है। आचार्यों ने अपनी कृतियों में दान के विभिन्न भेदों की चर्चा की है । सर्वार्थसिद्धि में आहारदान, अभयदान तथा ज्ञानदान नामक तीन दानों की चर्चा की है जबकि सागारधर्मामत के अनुसार सात्त्विक, राजस, तामस आदि तीन प्रकार के दान होते हैं। किन्तु मुख्य रूप से दान को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-अलौकिक व लौकिक । अलौकिक दान साधुओं को दिया जाता है, जो चार प्रकार का है-आहार, औषध, ज्ञान व अभय तथा लौकिक दान साधारण व्यक्तियों को दिया जाता है । जैसे-समदत्ति, करुणादत्ति, औषधालय, स्कूल, प्याऊ आदि खुलवाना। श्रवणबेल्गोला के लगभग दो सौ अभिलेखों में दान परम्परा के उल्लेख मिलते हैं । इनमें मुख्य रूप से ग्रामदान, भूमिदान, द्रव्यदान, बस्ति व मन्दिरों का निर्माण व जीर्णोद्धार, मूर्ति दान, निषद्या निर्माण, आहार दान, तालाब, उद्यान, पट्टशाला (वाचनालय), चैत्यालय, स्तम्भ तथा परकोटा आदि का निर्माण जैसे दान वणित हैं। इन दानों को अलौकिक व लौकिक नामक दो भागों में विभक्त किया जाता है - अलौकिक दान-जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि अलौकिक दान साधुओं को दिया जाता है। क्योंकि लौकिक दान में जिन वस्तुओं की गणना की गई है, जैनाचार में उन वस्तुओं को मनियों के ग्रहण करने योग्य नहीं बतलाया गया है। श्रवणबेल्गोला के अभिलेखों में अलौकिक दान में से केवल आहार दान" का उल्लेख मिलता है। ___आहार दान-आहार दान का अत्यन्त महत्त्व है । इसके महत्त्व का उल्लेख करते हुए पंचविंशतिका' में बतलाया गया है कि जैसे जल निश्चय करके रुधिर को धो देता है, वैसे ही गहरहित अतिथियों का प्रतिपूजन करना अर्थात् नवधाभक्तिपूर्वक आहारदान करना भी निश्वय करके गृहकार्यों से संचित हुए पाप को नष्ट करता है । श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में भूमि रहन से मुक्त करने पर तथा कष्टों के परिहार होने पर आहारदान की घोषणा करने का वर्णन मिलता है। एक अभिलेख के अनुसार कम्भिय्य ने घोषणा की १. परानुग्रहबुद्ध्या स्वस्यातिसर्जनं दानम् । (राजवात्तिक-६/१२/४/५२२) धवला-१३/५,५.१३७/३८६/१२ । ३. सर्वार्थ सिद्धि-६/२४/३३८/११। सागारधर्मामृत-५/४७ जैन शिलालेख संग्रह, भाग एक, लेख संख्या-६६-१०१, ४६७ । ६. पंचविंशतिका-७/१३ । ७. जै०शि० ले० सं०, भाग एक, ले० सं०६६ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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