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आचार्य श्री के प्रथम दर्शन
उपाध्याय मुनि श्री भरतसागर जी
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परम पावन सिद्धक्षेत्र तीर्थराज सम्मेद शिखरजी के चरणों में सिद्ध प्रभु के चिन्तन में अपने मन को एकाग्रचित्त किये आह्लादित रहता था । दीक्षा लिये अभी अधिक समय नहीं हुआ था। अपनी ज्ञानगरिमा से विश्व को प्रकाशित करने वाले संतों के दर्शन मैं अभी. नहीं कर पाया था । अत: उनके दर्शनों के लिये मन सदैव लालायित रहता था ।
रत्नाकर शतक, मेरुमन्दर पुराण आदि कन्नड़-तमिल भाषाओं के ग्रन्थ मैंने पढ़े थे जिनकी टीका पूज्य आचार्य श्री ने की थी। कौन हैं वे ? हिन्दी टीकाकार का चित्र सामने हिन्दी पुस्तक में था। गठीला बदन, चेहरे पर तेज, मुस्कराता मुख । सोचा, समस्त कन्नड़, तमिल भाषाओं के जिनागम रहस्य को हिन्दी रूपान्तर करने वाले कर्नाटक-भाषी मुनिराज कितने महान हैं। यह तो कोई अद्वितीय प्रभावक मानव ही होना चाहिये। कब दर्शन करूंगा? अभी इच्छा पूर्ण नहीं हुई थी कि एक मंदिर में क्या देखा? देश का प्रधानमंत्री जिनके निकट श्रद्धावनत है, ऐसे वीतरागी संत उसे आशीर्वाद दे रहे थे। वह समय भी अद्भुत था। भारत की राजधानी दिल्ली का चप्पा-चप्पा जिसकी अदभुत शक्ति से प्रभावित हो पुलकित हो रहा था-ऐसा देश का अनुपम भूषण, मां सरस्वती का पुत्र, भारती का सच्चा सपूत, देश का अनुपम हार बना हुआ था। उनकी वाणी और गंभीरता से, ओजमय चरित्र से और चारित्र से सारा देश कृतार्थ हो रहा था ।
पूज्य श्री के द्वारा निर्मित क्षेत्र चूलगिरि के दर्शन करते ही शिखरजी का पावन दृश्य आंखों में झूम उठा। सोचने लगा: इतने महान कार्यों के निर्मापक गुरु, वीतरागमुद्रा के दर्शन मुझे कब होंगे। अब तो दिनों-दिन आचार्य श्री के दर्शन की अभिलाषा बढ़ती जा रही थी। किसी ने कहा---'भावना भवनाशिनी"। जब उत्तम भावना के आने पर भव का नाश हो जाता है तो क्या मुझे आचार्य श्री के दर्शन नहीं होंगे ? अवश्य होंगे। भावना मूर्त रूप लेने लगी-पुण्योदय से श्री बाहुबली स्वामी के महामस्तकाभिषेक का स्वर्ण अवसर आया। मार्ग प्रशस्त हो गया। हिन्दी कवि ने कहा है
"उपजे शुभ इच्छा मन कोई, सो निश्चयकर पूर्ण होई।
पर न अशुभ चिन्ते पूरण होई, तातै अशुभ न चिन्तो कोई ॥" चातुर्मास के बाद मेरा विहार पूज्य बाहुबली के चरणों की ओर हुआ। पर मन मेरा उस महान् आत्मा में अटका हुआ था। शीघ्र कोथली आयेगा और उन पवित्रात्मा के दर्शन होंगे। शुभ समय में कोथली पहुंचते ही शान्तिनगर में श्री 1008 शान्तिनाथ प्रभ के दर्शन कर मन अत्यंत प्रफुल्लित हुआ। जिन आँखों में आज तक जिनका चित्र घूमता था, आज उस मूर्तिमान आत्मा को आंखों के सामने देखकर चरण स्पर्श कर हर्ष का अतिरेक हुआ। चरण-स्पर्श करके हाथ और दर्शन करके नेत्र तो पवित्र हो चुके थे पर अभी कर्णों को पवित्र करना शेष था। सोचा, इतनी वृद्धावस्था है, अब तो प्रवचन आदि नहीं होता होगा। अतः कर्णों को पवित्र करना मुश्किल है। सोचाहे प्रभो ! जिनवाणी मां के लाडले, सच्चे सपूत के मुखारविन्द से दो शब्द भी अमृत बरस जाय तो कर्ण पवित्र कर लूं । आश्चर्य हुआ। ठीक तीन बजे थे कि आचार्य श्री ने अपनी दिव्य ओजस्वी वाणी से सभाभवन को विभोर कर दिया। आचार्य श्री कह रहे थे, “यदि धर्म के प्रति कोई भी गलत कदम उठायेगा तो मैं आज भी वहां जाकर उसका विरोध करूंगा, धर्म के विरोधियों से लोहा लेते हुए मेरे प्राण भी निकल जायें तो अच्छा, पर मैं धर्म के प्रति होने वाले अत्याचारों को कभी भी सहन नहीं करूंगा।" आज भी उनकी वाणी में अकलंक-निकलंक के समान दृढ़ श्रद्धा जीवन्त है। वास्तव में इनका शरीर वृद्ध हुआ है, परन्तु धर्म के प्रति मन आज भी जवान ही है ।
धर्म के प्रति इसी भक्ति व श्रद्धा के फलस्वरूप शारीरिक रोग से ग्रसित होने पर भी आप महामस्तकाभिषेक में पधारे और महान् कार्य किया। अभी भी चूलगिरि क्षेत्र में पधार कर धर्म की प्रभावना कर रहे हैं। जैन धर्म में साधु की सिंह वृत्ति कही गई है, परन्तु आचार्य श्री की धर्म के प्रति अपूर्व सिंहगर्जना को सुनने का सौभाग्य मुझे प्रथम बार ही मिला था। ऐसे मुनि-पुंगव, नर-पुंगव जब तक इस भारत-भूमि पर विचरण करते रहेंगे, तब तक भारत-भूमि अपनी धर्ममयी संस्कृति को सुरक्षित रख सकेगी। यथा नाम तथा गुण के अनुसार आप देश को तो शोभायमान कर ही रहे हैं, पर जैन धर्म के प्रभावक नेता बनकर जिनधर्म के भी भूषण बन गये हैं।
"धन दे, तन को राखिये, तन दे, रखिये लाज।
धन दे, तन दे, लाज दे, एक धर्म के काज" ॥ उपर्युक्त कहावत आचार्य श्री के जीवन में चरितार्थ हो चुकी है। आप जैन दर्शन के अद्वितीय सूर्य बन देश के भूषण बन गये हैं। ऐसे महान् आचार्य श्री के चरणों में मेरा त्रिभक्तिपूर्वक शतशः वन्दन ।
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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