SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1635
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आना स्वाभाविक ही है। जैनधर्म के प्रतिपालक राजा मारसिंह ने सन् १७४ ई० में भट्टारक अजितसेन के समीप तीन दिवस तक सल्लेखना व्रत का पालन कर बंकापुर में समाधिमरण किया था। अपने पराक्रमी शासनाधिपति राजा मारसिंह के देहोत्सर्ग को देखकर सेनापति चामुण्डराय और उनकी माता का मन संसार की असारता की भावना से भर गया होगा । ऐसी स्थिति में माता काललदेवी एवं सेनापति चामुण्डराय का तीर्थाटन करते हुए श्रवणबेलगोल पहुँच जाना अप्रत्याशित नहीं है । आचार्य अजितसेन की प्रेरणा से अनेक युद्धों के विजेता अजेय सेनापति चामुण्डराय के मन में परमपूज्य आचार्य जिनसेन द्वारा परिकल्पित भगवान् बाहुबली की शब्द-मूर्ति को साकार रूप देने का विचार निश्चित रूप से आया होगा और साहित्यानुरागी चामुण्डराय ने महापुराण में अप्रतिम अपराजेय योद्धा प्रथम कामदेव बाहुबली की प्रबल वैराग्यानुभूतियों एवं कठोर तपश्चर्या को सजीव रूप देने के लिए कायोत्सर्ग मुद्रा में विशाल मूर्ति के निर्माण का संकल्प किया होगा। आचार्य जिनसेन की काव्यात्मक परिकल्पना का कठोर पाषाण पर मूर्त्यांकन करने के लिए हीरे की छैनी और मोती के हथौड़े का प्रयोग किया गया। ग्रेनाईट के प्रबल पाषाण पर सिद्धहस्त कलाकारों ने जिस निष्ठा एवं कौशल से अपनी छनी का प्रयोग किया है उससे भारतीय मूर्तिकारों का मस्तक सदैव के लिए ऊंचा हो गया है। पहाड़ी की चट्टान को काटकर एक शिला खंड में उत्कीर्ण इस लोकोत्तर प्रतिमा की गणना विश्व के आश्चर्यों में की जाती है। इस प्रतिमा का सिंहासन प्रफुल्ल कमल के आकार का है। इस कमल के बनाये चरण के नीचे ३ x ४ इंच का नाप खुदा हुआ है। इस नाप को १८ से गुणा कर देने पर मूर्ति का नाप निकल आता है। समय-समय पर हुए सर्वेक्षणों में मूर्ति की लम्बाई का विवादास्पद उल्लेख मिलता है। फरवरी १९८१ में सहस्राब्दी प्रतिष्ठा समारोह के अवसर पर विशेषज्ञों द्वारा मूर्ति की लम्बाई ५८ फुट ८ इंच (१७.६ मीटर) निश्चित कर दी गयी है। तपोरत भगवान् गोम्मटेश भारतीय चेतना के प्रतीक पुरुष रहे हैं। इसी कारण चिक्कहनसौगे (मैसूर) से प्राप्त १०वीं सदी के प्रारम्भ के एक अभिलेख में गोम्मटदेव को स्थावर तीर्थ कहा गया है। इस तीर्थ के विकास एवं संरक्षण में जैन एवं जैनेतर राजाओं एवं जन सामान्य का सहयोग रहा है। विजयनगर नरेश बुक्काराय ने इस तीर्थ की प्रतिष्ठा में पारस्परिक सामंजस्य का एक अनुकरणीय निर्णय देकर सर्वधर्म सद्भाव । की भावना को अनुप्राणित किया और देश के वैष्णव एवं जैन समाज में अटूट भ्रातृत्व की बुनियाद डाली। मैसूर नरेश चामराज औडेयर ने श्रवणबेलगोल के मन्दिर की भूमि को रहन से मुक्त कराया। उनके सद्प्रयासों से श्रवणबेलगोल के तत्कालीन भट्टारक (जो विपदा के समय अन्यत्र चले गए थे) को पुन: मठ में प्रतिष्ठित किया गया। इस तीर्थ क्षेत्र के भव्य एवं विराट् स्वरूप को परिलक्षित करते हुए चन्नराणन के कुंज की चट्टान में उत्कीर्ण अभिलेख काव्यात्मक शैली में 'सन्देह' अलंकार के माध्यम से निम्नलिखित चित्रण कर रहा है - पट्टसामि-सट्टर श्री-देवीरम्मन मग चेन्नण्णन मण्डप आदि-तीर्त्तद कौलविदु हालु गोलनोविदु अमुर्त-गोलनोविदु गंगे नदियो। तुंगबद्रियोविदु मंगला गौरेयो विदु कन्दवनवोविदु नगार-तोटवो। अयि अयिया अयि अयिये वले तीर्त वले तीर्त्त जया जया जया जय ।। अर्थात् यह पुट्टसामि और देवीरम्म के पुत्र चण्णण का मण्डप है या आदितीर्थ है ? यह दुग्धकुण्ड है या कि अमृतकुण्ड ? यह गंगा नदी है या तुंगभद्रा या मंगलगौरी ? यह वृन्दावन है कि विहारोपवन ? ओहो ! क्या ही उत्तम तीर्थ है ! श्रवणबेलगोल भारतीय समाज का एक आध्यात्मिक तीर्थ है। सन् १९२५ में आयोजित महामस्तकाभिषेक के अवसर पर मैसूर नरेश स्व० श्री कृष्णराज ने अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हुए कहा था-"जिस प्रकार भारतवर्ष बाहुबलि के बन्धु भरत के साम्राज्य के रूप में विद्यमान है उसी प्रकार यह मैसूर की भूमि गोम्मटेश्वर के आध्यात्मिक साम्राज्य के प्रतीक रूप में है।" इस तीर्थ की परम्परा ने सम्पूर्ण राष्ट्र का ध्यान आकर्षित किया है। सुप्रसिद्ध वास्तुशिल्पी एवं कलाविशेषज्ञ मिर्जा इस्माईल महोदय की यह धारणा रही है कि श्रवणबेलगोल किसी धर्म विशेष की रुचि का प्रतीक न होकर समस्त राष्ट्र की कलात्मक निधि का परिचायक है। भगवान् बाहुबली सहस्राब्दी प्रतिष्ठा समारोह के अवसर पर केन्द्रीय संचार मन्त्री श्री सी० एम० स्टीफन ने महामस्तकाभिषेक को धार्मिक महोत्सव की अपेक्षा अन्तर्राष्ट्रीय मेला कहना उपयुक्त समझा था। उन्होंने श्रवणबेलगोल की ऐतिहासिक परम्परा को नमन करते हुए स्वीकार किया था-"श्रवणबेलगोल पूरे देश की अनुपम निधि है। यह वह महान् स्थल है जहां उत्तरावर्त के सम्राट ने अन्तिम शरण प्राप्त की और इस स्थान को ही उन्होंने अपनी साधना के लिए चुना। इस घटना से श्रवणबेलगोल उत्तर एवं दक्षिण भारत के बीच भावात्मक सम्बन्धों की सिद्धि करने वाला, राष्ट्रीय महत्त्व का स्थान बनकर हमेशा के लिए महान् हो गया।" इस अवसर पर एक और सत्य का उद्घाटन करते हुए उन्होंने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया था कि भारतीय डाक व तार विभाग को यह टिकट इसलिए भी निकालना पड़ा है, क्योंकि गोम्मटेश्वर की इस कलात्मक प्रतिमा ने पूरे देश का ही नहीं, विदेशों का भी ध्यान आकर्षित किया है। वास्तव में भगवान् गोम्मटेश्वर की प्रतिमा आज की गोम्मटेश दिग्दर्शन W Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy