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________________ में प्राप्त विवरणों से प्रकट है कि जो कभी एक निर्जन प्रदेश में स्थित नंगी पहाड़ी मात्र थी, समय पाकर भक्त यात्रियों के लिए पवित्र तीर्थस्थान बन गयी । शिक्षा एवं दीक्षा का कार्यक्षेत्र बन गयी। धर्म और संस्कृति का विश्वविद्यालय बन गयी, एक धर्म-राज्य या संस्थान बन गयी। वर्कमैन नामक एक विदेशी पर्यटक ने १६०४ ई० में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'थ्र टाउन एण्ड जंगल' में श्रवणबेलगोल के दर्शन करके लिखा था कि "इस सुन्दर मैसूर राज्य के सम्पूर्ण क्षेत्र में इस जैसा अन्य कोई स्थान ढूढ़े नहीं मिलेगा, जहाँ इतिहास और प्राकृतिक सौन्दर्य इस प्रकार दृढ़ता के साथ परस्पर लक्षित होते हैं।" एक विद्वान् ने श्रवणबेलगोल के ज्ञान-केन्द्र की तत्कालीन सुप्रसिद्ध नालन्दा विश्वविद्यालय से तुलना करते हुए लिखा है कि "व्याकरण, काव्य, छंद, अलंकार, सिद्धान्त, चिकित्साशास्त्र तथा न्याय वे प्रमुख विषय थे जिनमें निष्णात होने एवं विशेषज्ञता प्राप्त करने के लिए श्रवणबेलगोल के मुनिजन अपना शान्त जीवन समर्पित करते थे।" इन्द्रगिरि स्थित भगवान गोम्मटेश्वर की एकल पाषण से निर्मित विश्व की सर्वाधिक विशाल एवं कलात्मक प्रतिमा के निर्माण की पृष्ठभूमि का विवेचन करने के लिए तत्कालीन जैन इतिहास एवं साहित्य का गम्भीर अनुशीलन अपेक्षित है। इस प्रकार की आश्चर्यजनक और मन्त्रमुग्ध कर देने वाली पौराणिक मूर्ति का निर्माण वास्तव में शताब्दियों की सतत् साधना का फल है। जैन मूर्तिकला में भगवान बाहुबली का स्वतन्त्र एवं प्रभावशाली चित्रांकन ८वीं-हवीं शताब्दी में आरम्भ हो गया था। सुप्रसिद्ध प्राच्य विद्या विशेषज्ञ श्री सी० शिवराम मूर्ति की अंतिम कृति 'पैनोरमा आफ़ जैन आर्ट' में चित्र सं० ४८-ए, ८७,६६, १२०, १४३, १४५, १४६, १५४, १५५ से विदित होता है कि श्रवणबेलगोल स्थित भगवान् गोम्मटेश्वर की प्रतिमा के निर्माण से पूर्व ही भगवान् बाहुबली की प्रतिमाओं का दक्षिण भारत में बड़ी संख्या में निर्माण होने लगा था। विद्वान् लेखक ने सभी चित्रों का ज्ञानोपयोगी विवेचन किया है। भगवान् बाहुबली की प्रतिमाओं के अन्तर्गत होने वाले क्रमिक विकास की जानकारी के लिए प्रयुक्त टिप्पणियाँ उपादेय हैं। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित 'जैन कला एवं स्थापत्य' में चित्र सं० ११४ (बदामी, ८वीं शती), ११८-ख (एलोरा, १०वीं शती), १३५ (चित्तामुर, दक्षिण अर्काट, हवी-१०वीं शती), २१५ (तिरुमलै, १०वीं शती), ३५२ (प्रिंस आफ वेल्स संग्रहालय, ८वी-6वीं शती), श्रीमती र० चम्पकलक्ष्मी द्वारा तिरुप्परंकुरम की गुफा में उत्कीर्ण ८वी-6वीं शती की गोम्मट प्रतिमा, डा० प्रियतोष बनर्जी द्वारा पोडासिंगडी एवं चरंपा से प्राप्त गोम्मटेश्वर की प्राचीन मूर्तियों के विश्लेषण से यह अनुमान लगता है कि ८वी-६वीं शताब्दी के आरम्भ में भगवान् बाहुबली की प्रतिमाओं के निर्माण का दक्षिण भारत में प्रचलन हो गया था। जैन साहित्य में भावपाहुड, विमलसूरिकृत पउमचरिउ, तिलोयपत्ति, वसुदेवहिण्डी, उपदेशमाला, आचार्य रविषेण कृत पद्मपुराण आदि में भगवान् बाहुबली का संक्षिप्त कथानक प्राप्त होता है। हवीं शताब्दी के आरम्भ अथवा मध्य में जिनागम के प्रतिमान आचार्य वीरसेन के यशस्वी शिष्य श्री जिनसेन ने महापुराण की रचना में प्रथम कामदेव बाहुबली स्वामी के कथानक को सदा-सदा के लिए अमर कर दिया। भगवान् ऋषभदेव के उदात्त चरित्र के महान् गायक श्री जिनसेन की प्रशस्ति में आचार्य गुणभद्र ने कहा है कि जिस प्रकार हिमालय से गंगा का प्रवाह, सर्वज्ञ के मुख से सर्वशास्त्ररूप दिव्यध्वनि और उदयाचल के तट से दैदीप्यमान सूर्य का उदय होता है उसी प्रकार वीरसेन स्वामी से जिनसेन का उदय हुआ । आचार्य लोकसेन के अनुसार श्री जिनसेन कवियों के स्वामी एवं तत्कालीन राजाधिराजाओं द्वारा वन्दनीय थे। विद्यानुरागी राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष आचार्य जिनसेन के अगाध पांडित्य एवं कवित्व शक्ति के प्रति असीम श्रद्धा भाव रखते थे। आचार्य जिनसेन के चरणों में भक्तिपूर्वक नमन करके उन्हें असीम संतोष प्राप्त होता था। धर्मपरायण सम्राट् अमोघवर्ष ने अपनी विपदा के साथी अधीनस्थ राजा बंकेय की समर्पित सेवाओं के फलस्वरूप ८६० ई० में चन्द्रग्रहण के अवसर पर बंकेय द्वारा निर्मित जैन मन्दिर के लिए तलमूर गाँव एवं अन्य गांवों की भूमि दान में दी थी। इसी बंकेय के नाम पर बंकापुर राजधानी बनाई गई। कालान्तर में यह स्थान जैन धर्म एवं संस्कृति का महान केन्द्र बन गया। राष्ट्रकट नरेश अकालवर्ष के राज्य में चेल्लकेतन (बंकेय) के पुत्र लोकादित्य की साक्षी में बंकापुर के जिनमन्दिर में श० सं० ८२० में उत्तरपुराण के पूर्ण हो जाने पर महापुराण की विशेष पूजा का आयोजन हुआ। बंकापुर की साहित्यिक एवं आध्यात्मिक गतिविधियों के संरक्षण में तत्कालीन युग के सर्वाधिक प्रभावशाली आचार्य श्री अजितसेन का स्वर्णिम योग रहा है। इस महान् आचार्य के सांस्कृतिक अवदान की स्तुति करते हुए आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने उन्हें ऋद्धिप्राप्त गणधर देवादि के समान गुणी तथा भुवन गुरु बतलाया है अज्जज्जसेण गुणगण समूह संधारि-अजियसेण गुरु । भुवणगुरु जस्स गुरु सो राओ गोम्मटो जयऊ । (कर्मकाण्ड गाथा ७३३) आचार्य अजितसेन तत्कालीन सभी प्रमुख राजाओं द्वारा सम्मानित थे। गंगवंशीय राजा मारसिंह, राजा राचमल्ल (चतुर्थ), सेनापति चामुण्डराय उनके प्रमुख शिष्य थे। आचार्यश्री के कृपा-प्रसाद से ही महाकवि रन्न एवं नागदेव ने काव्यसाधना आरम्भ की थी। ऐसे प्रतापी गरु की प्रेरणा से कर्नाटक राज्य के जन-मन में आचार्य जिनसेन द्वारा उत्प्रेरित भगवान् बाहुबली की विशाल एवं उत्तुंग प्रतिमा के निर्माण का विचार आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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