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________________ भारतीय इतिहास, संस्कृति और साहित्य ने इस तथ्य को पुष्ट किया है कि सिन्धघाटी की सभ्यता जैन सभ्यता थी। सिन्धुघाटी के संस्कार जैन संस्कार थे । इससे यह उपपत्ति बनती है कि सिन्धुघाटी में प्राप्त योगमूर्ति, ऋग्वैदिक वर्णन तथा भागवत, विष्णु आदि पुराणों में ऋषभनाथ की कथा आदि इस तथ्य के साक्ष्य हैं कि जैनधर्म प्राग्वैदिक ही नहीं वरन सिन्धुघाटी सभ्यता से भी कहीं अधिक प्राचीन है। श्री नीलकण्ठदास साहू के शब्दों में : 'जैनधर्म संसार का मूल अध्यात्म धर्म है । इस देश में वैदिक धर्म के आने से बहुत पहले से ही यहाँ जैनधर्म प्रचलित था। खूब संभव है कि प्राग्वैदिकों में शायद द्रविड़ों में यह धर्म था।" कुछ ऐसे शब्द हैं, जो जैन परम्परा में रूढ़ बन गये हैं। डा० मगलदेव शास्त्री का कथन है कि 'वातरशन' शब्द जैन मुनि के अर्थ में रूढ़ हो गया था। उनकी मान्यता है कि 'श्रमण' शब्द की भाँति ही 'वातरशन' शब्द मुनि-सम्प्रदाय के लिए प्रयुक्त था। मुनि-परम्परा के प्राग्वैदिक होने में दो मत नहीं हैं।' डा. वासुदेवशरण अग्रवाल भारतीय इतिहास के जाने-माने विद्वान् रहे हैं । उन्होंने भी स्वीकार किया है कि भारत का नाम ऋषभ के ज्येष्ठ पुत्र भरत के नाम पर ही भारतवर्ष हुआ। इससे पहले भ्रान्तिवश उन्होंने दुष्यन्त-पुत्र भरत के कारण इसे भारत अभिहित किया था। जैनों का इतिहास बहुत प्राचीन है। भगवान् महावीर से पूर्व तेईस और जैन तीर्थंकर हुए हैं, जिनमें सर्वप्रथम हैं ऋषभनाथ । सर्वप्रथम होने के कारण ही उन्हें आदिनाथ भी कहा जाता है । जैन कला में उनकी जो मुद्रा अंकित है वह एक गहन तपश्चर्यारत महायोगी की है। भागवत में ऋषभनाथ का विस्तृत जीवन-वर्णन है । जैन दर्शन के अनुसार यह जगत् अनादिनिधन है अर्थात् इसका न कोई ओर है और न छोर । यह रूपान्तरित होता है; किन्तु अपने मूल में यह यथावत् रहता है । युग बदलते हैं; किन्तु वस्तु-स्वरूप नहीं बदलता । द्रव्य नित्य है । उसका रूपान्तरण संभव है; किन्तु ध्रौव्य असंदिग्ध है। आज जो युग चल रहा है वह कर्मयुग है। माना जाता है कि यह युग करोड़ों वर्ष पूर्व आरम्भ हुआ था। उस समय भगवान ऋषभनाथ युग-प्रधान थे । असि (रक्षा), मसि (व्यापार), कृषि (खेती) और अध्यात्म (आत्मविद्या) की शिक्षा उन्होंने दी। उन्होंने प्रजाजनों को, जो कर्मपथ से अनभिज्ञ थे; बीज, चक्र, अंक और अक्षर दिये । कर्मयुग की यह परम्परा तब से अविच्छिन्न चली आ रही है। . ऋषभनप दीर्घकाल तक शासन करते रहे। उन्होंने उन कठिन दिनों में जनता को सुशिक्षित किया और उनकी बाधाओं, व्यवधानों और दुविधाओं का अन्त किया। अन्त में आत्मशुद्धि के निमित्त उन्होंने श्रमणत्व ग्रहण कर लिया और दुर्द्धर तपश्चर्या में निमग्न हो गये । स्वयं द्वारा स्थापित परम्पराओं और प्रवर्तनों के अनुसार उन्होंने ज्येष्ठ पुत्र भरत को अपना सम्पूर्ण राजपाट सौंपा और परिग्रह को जड़मूल से छोड़ कर वे वैराग्योन्मुख हो गये; फलतः वे परम ज्ञाता-दृष्टा बने। उन्होंने अपनी समस्त इन्द्रियों को जीत लिया, अत: वे 'जिन' कहलाये । 'जिन' की व्युत्पत्ति है : 'जयति इति जिनः' (जो स्वयं को जीतता है, वह जिन है)। कैवल्य-प्राप्ति के बाद उन्होंने जनता को अध्यात्म का उपदेश दिया और बताया कि आत्मोपलब्धि के उपाय क्या हैं ? चूंकि उनका उपनाम जिन था, अतः उनके द्वारा प्रवर्तित धर्म जैनधर्म कहलाया। इस तरह जैन धर्म विश्व का सर्वप्रथम धर्म बना। १. भारतीय दर्शन, पृ० ६३; वाचस्पति गैरोला । २. उड़ीसा में जैनधर्म; डॉ० लक्ष्मीनारायण साहू; श्री अखिल जैन मिशन, एटा; ग्र० प्र०, उ०, १९५६ ३. 'नवनीत', हिन्दी मासिक, बम्बई; डॉ० मंगलदेव शास्त्री; जून १६७४; पृ०६६ ४. दे० टि० ऋ०४ ५. जैन साहित्य का इतिहास, पूर्व पीठिका; पं. कैलाशचन्द शास्त्री; भूमिका-डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, पृ० ८ १८० आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org..
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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