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कहेंगे कि शिल्पकला आदि के माध्यम से आगम बोधगम्य बनता है और हम बड़ी आसानी से उस कंटकाकीर्ण मार्ग पर पग रखने में समर्थ होते हैं ।
__ जैनधर्म की प्राचीनता निबिवाद है । प्राचीनता के इस तथ्य को हम दो साधनों से जान सकते हैं : पुरातत्त्व तथा इतिहास । जैन पुरातत्त्व का प्रथम सिरा कहाँ है, वह तय करना कठिन है; क्योंकि मोहन-जो-दड़ो की खुदाई में कुछ ऐसी सामग्री मिली है, जिसने जैनधर्म की प्राचीनता को आज से कम-से-कम ५००० वर्ष आगे धकेल दिया है।' सिन्धुघाटी से प्राप्त मुद्राओं के अध्ययन से स्पष्ट हुआ है कि 'कायोत्सर्ग मुद्रा' जैनों की अपनी लाक्षणिकता है । प्राप्त मुद्राओं पर तीन विशेषताएँ हैं : कायोत्सर्ग मुद्रा, ध्यानावस्था और नग्नता (दिगम्बरत्व) । .
मोहन-जो-दड़ो की सीलों पर योगियों की जो कायोत्सर्ग मुद्रा अंकित है उसके साथ वृषभ भी है। वृषभ ऋषभनाथ का चिह्न (लाँछन) है । पद्मचन्द्र कोश में ऋषभ का व्युत्पत्तिक अर्थ दिया है : 'सम्पूर्ण विद्याओं में पार जाने वाला एक मुनि।' हिन्दू पुराणों में जो वर्णन मिलता है उसमें ऋषभ और भरत दोनों के विपुल उल्लेख हैं। पहले माना जाता रहा है कि दुष्यन्त-पुत्र भरत के नाम से ही इस देश का नाम भारत हुआ; किन्तु अब यह निर्धान्त हो गया है कि भारत ऋषभ-पुत्र 'भरत' के नाम पर ही 'भारत' कहलाया। इसका पूर्वनाम अजनाभवर्ष था। नाभि (अजनाभ) ऋषभ के पिता थे। उन्हीं के नाम पर यह अजनाभवर्ष कहलाया। 'वर्ष' का अर्थ है 'देश'; तदनुसार 'भारतवर्ष' का अर्थ हुआ 'भारतदेश' । मोहन-जो-दड़ो की संकेतित सील में भरत चक्रवर्ती की मर्ति भी उकेरी गयी है। इन सारे पुरातथ्यों की वस्तुनिष्ठ समीक्षा की जानी चाहिये ।
प्रस्तुत सील को जब हम तफसीलवार या विस्तार में देखते हैं तब इसमें हमें सात विषय दिखायी देते हैं : (१) ऋषभदेव नग्न कायोत्सर्गरत योगी। (२) प्रणाम की मुद्रा में नतशीश भरत चक्रवर्ती। (३) त्रिशूल । (४) कल्पवृक्ष पुष्पावलि। (५) मृदु लता। (६) वृषभ (बैल) । (७) पंक्तिबद्ध गणवेशधारी प्रधान आमात्य ।
निश्चय ही इस तरह की संरचना का आधार पीछे से चली आती कोई सुदृढ़ सांस्कृतिक परम्परा ही हो सकती है। प्रचलित लोक-परम्परा के अभाव में मात्र जैनागम के अनुसार इस तरह की परिकल्पना संभव नहीं है ।
इतिहास में ही हम अपने प्राचीन ऋक्य (धरोहर) को प्रामाणिक रूप में सुरक्षित पाते हैं। इतिहास, ऐतिह्य और आम्नाय समानार्थक शब्द हैं।" इतिहास शब्द की व्युत्पत्ति के अनुसार इसका वाच्यार्थ है : 'इति ह आसीत्' (निश्चय से ऐसा ही हुआ था तथा परम्परा से ऐसा ही है) । इतिहास असल में दीपक है। जिस तरह एक दीपक से हम वस्तु के यथार्थ रूप को देख पाते हैं, ठीक वैसे ही इतिहास से हमें पुरातथ्यों की निर्धान्त सूचना मिलती है ।
परम्परा और इतिहास में किंचित् अन्तर है। इतिहास ठोस तथ्यों पर आधारित होता है; परम्परा लोकमानस में उभरती और आकार ग्रहण करती है । एक पीढ़ी जिन आस्थाओं, स्वीकृतियों और प्रचलनों को आगामी पीढ़ी को सौंपती है, परम्परा उनसे बनती है । परम्पराओं का कोई सन्-संवत् नहीं होता। वैसे इस शब्द के नानार्थ हैं । एक अर्थ पुरासामग्री भी है। परम्परा अर्थात् एक सुदीर्घ अतीत से जो अविच्छिन्न चला आ रहा है वह । योगियों की भी एक अविच्छिन्न परम्परा रही है। योगविद्या क्षत्रियों की अपनी मौलिकता है। क्षत्रियों ने ही उसे द्विजों को हस्तान्तरित किया। ऐसा लगता है कि सिन्धुघाटी के उत्खनन में प्राप्त सीलें एक सूदीर्घ परम्परा की प्रतिनिधि हैं । वे आकस्मिक नहीं हैं, अपितु एक स्थापित सत्य को प्रकट करती हैं।
१. सिंध फाइब थाउजेंड इअर्स एगो; रामप्रसाद चन्दा; 'मॉडर्न रिव्ह यू' कलकत्ता; अगस्त १९३२ २. अतीत का अनावरण; आचार्य तुलसी, मुनि नथमल, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, १९६९; प. १: ३. पद्मचन्द्र कोश, पृ. ४६५; ऋषभदेव (पु.) १. ऋष + अभक्=जाना, दिव=अच् (सम्पूर्ण विद्याओं में पार जाने वाला एक __मुनि); २. जैनों का पहिला तीर्थकर । ४. मार्कण्डेय पुराण : सांस्कृतिक अध्ययन; डॉ० वासुदेव शरण अग्रवाल; पृ. २२-२४ ५. आदिपुराण १२५; आचार्य जिनसेन । ६. प्रतिष्ठातिलक १८/१; नेमिचन्द्र ।
जैन इतिहास, कला और संस्कृति
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